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________________ ( 72 ) देना भी साधु के लिये निषिद्ध है। देखिए 'श्राद्धविधि' के 74 पृष्ठ पर देवद्रव्य विनाश की उपेक्षा करने वाले साधु को भी अनंत-संसारी बताया गया है जबकि वही पर यह शंका भी की गई है कि "अथ त्रिधा प्रत्यारव्यातसावद्यस्यय तेश्च त्यद्रव्यरक्षायां को नामाधिकारः?" अर्थात् करना, कराना और अनुमोदन करना-इन तीनों ही प्रकार के पाप से निवृत्त साधु को देवद्रव्य की रक्षा का क्या अधिकार ?" इसका उत्तर निम्नानुसार दिया गया है- "यदि राजामात्याद्यभ्यर्थनपुरस्सरं गहहट्टग्रामादिकादानादिविधिना नवमुत्पादयति, तदा भवति भवद्विवक्षितार्थसिद्धिः। यदा तु केनचिद्यथाभद्रकादिना धर्माद्यर्थ प्राग्वितीर्णमन्यद्वा जिनद्रव्यं विलुप्यमानं रक्षति तदा नाभ्युपेतार्थहानिरपितु विशेषतः पुष्टिरेव सम्यग् जिनाज्ञाराधनात् / " अर्थात्- राजा अथवा अमात्य वगैरह को निवेदन कर, उनके पास से घर, बाजार, ग्रामादि ग्रहण कर, उनके द्वारा नया द्रव्य पैदा करना है तब आपके कथनानुसार अर्थ की सिद्धि हो सकती है किन्तु यदि किसी भद्र पुरुष द्वारा धर्मादि के लिए पूर्व में दिया हुआ अथवा दूसरा किसी प्रकार का जिनद्रव्य नाश हो रहा हो, उसकी रक्षा करता है। उससे इच्छित अर्थ की हानि नहीं होती है अर्थात् किसी प्रकार का दोष नहीं लगता है, अपितु
SR No.004448
Book TitleDevdravya Sambandhi Mere Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsuri
PublisherMumukshu
Publication Year
Total Pages130
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size6 MB
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