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________________ ( 2 ) महात्माओं एवं शास्त्रों के प्रति कदापि शंका ही उत्पन्न नहीं हो, परन्तु 'खंडे खंडे पाण्डित्यम्' वाले और नयवाद की विशाल-दृष्टि से विचार न करने वाले अपनी तुच्छ प्रकृति के वशीभूत होकर पूज्य महा- : पुरुषों की तरफ अरुचि एवं अपनी आक्षेपक वृत्ति का प्रदर्शन करें तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। . . . . . _ 'देवद्रव्य के लिए तत्वदृष्टि से विचार करने पर विवाद का कोई प्रश्न ही खड़ा नहीं होता है। 'मूर्ति' के साथ 'देवद्रव्य' का अतिघनिष्ठ, संबन्ध है। जो 'भूति को स्वीकार करते हैं वे 'देवद्रव्य' का निषेध कर ही नहीं सकते हैं, क्यों कि जहाँ 'मूर्ति' होती है वहाँ 'मूर्ति के लिए उपयोगी वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती ही है। मूर्ति के लिए समर्पणबुद्धि से अर्पण की हुई वस्तुएँ ही 'देवद्रव्य' हैं और जो वस्तुएँ समर्पण बुद्धि से अपित नहीं की जाती हैं, उन्हें 'देवद्रव्य' नहीं कहा जा सकता। इस बात का स्पष्टीकरण आगे किया जायेगा। अङ्ग-उपाङ्ग और प्रामाणिक ग्रन्थों में तो आभूषण पूजा का भी विधान किया हुआ है, परन्तु कई लोगों का ऐसा भी कथन है कि "प्राचीन समय में देव मन्दिर शहरों में नहीं थे और मंदिरों के दरवाजे भी नहीं थे" इत्यादि / यह कथन तो केवल अज्ञानता
SR No.004448
Book TitleDevdravya Sambandhi Mere Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsuri
PublisherMumukshu
Publication Year
Total Pages130
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size6 MB
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