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________________ * पत्रिका नं० 1 * समाज का दुर्भाग्य कहो अथवा काल का प्रभाव कहो ! किसी भी कारण से अभी थोड़े समय से जैन समाज में 'देवद्रव्य' सम्बन्धी चर्चा ने इतना विषम-रूप धारण किया है कि किसी भी शासन-प्रेमी के मन में अवश्यमेव दुःख होता होगा। इस प्रश्न या चर्चा में किसी प्रकार का विशेष तथ्य ही नहीं है। उसके लिए इतनी बड़ी खटपट ? इतना जबर्दस्त विरोध और इतने अधिक झगडें ? ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी चर्चा या प्रश्न को वैर-विरोध का साधन बना देना बुद्धिमानसमझदार व्यक्ति के लिये, शोभाप्रद नहीं है। कथा, वाद या चर्चा के यथार्थ स्वरूप के ज्ञाता व्यक्ति तो विरोधियों के प्रति भी दुर्भाव को नहीं रखते हुए, समझ एवं विवेक पूर्वक ही उनको भी प्रत्युत्तर देते हैं परन्तु इस 'देवद्रव्य' की चर्चा का विषमवाद तो इतना बढ़ गया है कि लोग क्लेश और झगड़े-रगड़े में ही अपने अमूल्य समय का व्यय करते और कर्म बाँधते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। जैनागमों और जैन शास्त्रों का सुनिपुण बुद्धि से अवलोकन किया जाय तो पूज्य आचार्यों,
SR No.004448
Book TitleDevdravya Sambandhi Mere Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsuri
PublisherMumukshu
Publication Year
Total Pages130
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size6 MB
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