SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया। तदनन्तर हिन्दी अनु वाद करना प्रारम्भ किया, किन्तु विहार के कारण आशानुरूप कार्य नहीं हो पा रहा था। जब फिरोजाबाद (यू०पी०) में चातुर्मास था, तब फिरोजाबाद श्री संघ के विशिष्ट व्यक्तियों ने उस पुस्तक को पढ़ा और उन्होंने भी अपना अभिप्राय व्यक्त किया कि इस पुस्तक का प्रकाशन हिन्दी भाषा में अवश्यमेव होना चाहिए। उस समय उत्साह में और भी अभिवृद्धि हुई। पुनः अनुवाद करना प्रारम्भ किया, किन्तु चातुर्मासिक कार्यक्रमों की व्यस्तता के कारण पूर्ण नहीं हो पाया। चातुर्मासानन्तर विहार करते हुए चातुर्मासार्थ कौशाम्बी तीर्थ पहुंचे। इस चातुर्मास में भी कुछ लेखन कार्य हुआ। कौशाम्बी चातुर्मास के पश्चात् अध्ययनार्थ हम वाराणसी आये। उस समय श्री पावनाथविद्याश्रम शोधसंस्थान के समदर्शी, निष्पक्ष, श्रद्धासम्पन्न निदेशक डा० श्री सागरमलजी जैन का योगदान अतिश्लाघनीय रहा। उन्होंने ही लेखनकला हेतु प्रोत्साहन दिया। श्रीपार्श्वनाथ विद्याश्रम का वस्तुतः अध्ययन-लेखन के लिए अनुकूल वातावरण होने के कारण ही कार्य शीघ्र सम्पन्न हो सका। * हनि प्रवीण विजय
SR No.004448
Book TitleDevdravya Sambandhi Mere Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsuri
PublisherMumukshu
Publication Year
Total Pages130
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy