________________ अनेक प्रकार से भक्ति करते हैं किन्तु उस महोत्वस के समय में भक्ति निमित्त किसी भी कार्य हेतु बोली बोलने का उल्लेख कहीं पर भी दृष्टिगोचर होता है क्या ? नहीं। किन्तु, क्यों नहीं ? यहाँ पर यह कहना ही पड़ेगा कि उनमें इस प्रकार के कलह का प्रश्न ही नहीं उठता है। उन्हें देवद्रव्य वृद्धि की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती है जिससे कि शक्रन्द्र इस प्रकार से कहने लगे कि मैं भगवान् को अपनी गोद में लूगा और दूसरे इन्द्र कहने लगे कि हम गोद में लेंगे ? वहाँ तो सभी को अपने-अपने अधिकार के अनसार कार्य करने होते हैं। अतः वहाँ पर बोली का प्रश्न ही नहीं उठता है / बोली तो अपने यहाँ ही होती है जहाँ कि एक सेठ कहता है कि मैं ही प्रथम पूजा करूगा, उस समय दूसरा कहता है कि मैं क्या इससे कम पैसों वाला हूँ कि इसके बाद दूसरी पूजा करू ? प्रथम पूजा करके भगवत्पूजा का फल यही लेकर चल देगा, उस समय हम तो हवा ही खाते रहेंगे न ? इस प्रकार के कलह निवारणार्थ बोली के अतिरिक्त अन्य उपाय ही क्या हो सकता है ? जैसे किसी भी कार्य के समाधान हेतु कई लोग चिट्ठी डालते हैं अर्थात् किसी भी कार्य में दो मत हो जाते हैं अथवा स्वान्तःकरण में ऐसा हो जाय कि यह करू या वह करू ? उस समय उस शंका के समाधानार्थ प्रभु के . अंक में कई लोग चिट्ठियाँ डालते हैं। उसमें जो चिट्ठी