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________________ 'प्राचीन परम्परा है / ' इस प्रकार कहकर भद्रिक लोगों को चक्कर में डालना उचित नहीं है। इस बोलीं की परंपरा के विषय में मैंने अपनी प्रथम और द्वितीय पत्रिका में . बहुत कुछ लिख दिया है। इससे पाठक लोग समझ गये होंगे कि बोली बोलकर देवद्रव्य की वृद्धि का उल्लेख या विधान किसी भी शास्त्र में नहीं है। इस पत्रिका में , ‘भी 'आत्मप्रबोध', 'दर्शनशुद्धि', 'धर्मसंग्रह' और 'श्राद्धविधि' वगै रह ग्रंथों के उद्धरण देवद्रव्य वृद्ध यर्थ दिये गये हैं उनमें भी कहीं ऐसा उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता है कि बोलियाँ द्वारा देवद्रव्य की वृद्धि करनी चाहिये / इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बोली बोलने का रिवाज शास्त्रीय रिवाज नहीं है किन्तु यह रिवाज संघ द्वारा ही बाद में चलाया गया है। प्रभुभक्ति अथवा धार्मिक कृत्यों के लिये इस प्रकार के रीतिरिवाज होने ही नहीं चाहिये, ऐसी जिनाज्ञा हो ही नहीं सकती। प्रभुभक्ति के निमित्त किसी प्रकार का कलह न हो, इसलिये हम सुविधानुसार परम्पराएँ बना देते हैं अतः उन परम्पराओं में समय-समय पर .. परिवर्तन भी हो सकता है किन्तु जहाँ इस प्रकारके कलह को स्थान ही नहीं है जहाँ इस प्रकार के रिवाज होते ही नहीं हैं। देखिए, तीर्थङ्कर भगवन्तो के जन्मादि कल्याणकों के समय इन्द्र और देवता महोत्सव करते हैं,
SR No.004448
Book TitleDevdravya Sambandhi Mere Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsuri
PublisherMumukshu
Publication Year
Total Pages130
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size6 MB
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