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________________ में डालने का तथा, ग्राम, किरायादि के समुचित व्याज वगैरह द्वारा देवद्रव्य की वृद्धि का मैंने निषेध किया ही नहीं है और इक्कीस प्रकार की पूजाओं में जो अन्तिम पूजा है वह 'कोशवृद्धि' के लिए कहीं गई है। उससे भी देवद्रव्य की वृद्धि की जा सकती है, परन्तु "जिनाज्ञाविरूद्ध जो देवद्रव्य की वृद्धि करते हैं वे मूढ व्यक्ति मोहग्रस्त होकर भवसमुद्र में डूबते हैं", इस प्रकार के शास्त्रीयवचन से मैं कदापि अलग नही हो सकता, और मैं नहीं मानता कि जो शास्त्रीय-मर्यादाओं को मानते हैं, जो भवभ्रमण का भय रखते हैं और जिन्होंने देवद्रव्य सम्बन्धी ग्रन्थों का सम्यकरूपेण स्थिर. बुद्धि से अवलोकन किया है वे इस बात का अस्वीकार कर सकते हैं। जब ऐसा ही है तो फिर मैंने विशेष क्या कह दिया कि मुझ पर इस प्रकार के आक्षेपों की वर्ष की जा रही है ? असे आक्षेपों से ही कहाँ 'इति श्री' हो: जाती है। मैंने देखा है कि मुझपर आक्रमण करने और आखिर मेरे उपदेश से स्थापित संस्था को समाप्त करने का प्रयत्न भी पूर्णतयां किया गया है। विचारभिन्नता से भरपूर संसार में, अपने से विरूद्ध स्वभाव वालों के. ऊपर उत्तेजित हो जाना, कषायकलुषितयुक्त पेम्पलेट: निकालना और येन-केन प्रकारेण सामने वाले को दबाने का प्रत्यन्न करना, यह सर्वथा निर्बलता नहीं तो और
SR No.004448
Book TitleDevdravya Sambandhi Mere Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsuri
PublisherMumukshu
Publication Year
Total Pages130
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size6 MB
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