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________________ 78 सिरिउसहनाहचरिए सामिगाई अइपणट्ठसेऊइं गिरिकुंजगयाई मसाणद्वाणगूढाई घरंतरंमि य गुत्ताई रययमुवण्ण-रयणाइधणाई सव्वओ समाहरिऊण दितस्स भत्तो मेहो जलाई इव पूरिति / नाभिनंदणो दिणे दिणे आइच्चोदयाओ भोयणखणं जाव सुवण्णस्स अट्ठलक्खसहियं एगकोडिं देइ, संवच्छरेण उ हिरण्णस्स अट्ठासीइकोडिजुयं कोडिसयतिगं असीइलक्खं च दाणं अप्पेइ / जो उत्तं तिन्नेव य कोडिसया, अहासोई य हुंति कोडीओ। असिहं च सयसहस्सं, एवं संवच्छरे दिन्नं // सामिस्स पबज्जागहणसवणेण जायसंसारवेरग्गा जणा सेसामेत्तं गिण्हेइरे, इच्छादाणे वि न अहिगं गिव्हंति / अह संवच्छरियदाणंते चलियासणो इंदो भत्तीए / अवरो भरहो इव भगवओ समीर्वमि उवागच्छइ / सो जलकलसहत्थेहि सुरवरेहि संम जगवइणो रज्जाभिसेगुन्य दिक्खामहूसवाभिसेगं कुणेइ / उसहपहुणो दिक्खामहूसवो तो इंदेण सिग्धं उवणीय दिव्ववत्थालंकाराइं जगविहू परिहाइ / इंदो पहुस्स करगं अणुत्तरविमाणाणं विमाणं इव सुदंसणं नाम सिविगं निम्मवेइ, महिंदेग दिण्णहत्थो पह लोयग्गपासायस्स पढमसोवाणमिव तं सिविगमारोहेइ / सा सिविगा पढमं रोमंचंचियदेहेहि मच्चेहि पच्छा य अमच्वेहि अप्पणो सक्खं पुण्णभारो इब उद्धरिया / तया सुरासुरेहिं वाइज्जमाणाई उत्तममंगलाऽऽओज्जाइं नाएहिं पुक्खलावट्टयमेहा इव दिसाओ पुरिति, जिणवइणो उभयपासंमि चामरदुगं परलोग-इहलोगाणं मुत्तरूवं निम्मलत्तणमिव विराएइ, बंदिणवंदेहिं पिव बुदारगवुन्देहिं नराणं पीणिअ-सवणो जयजयारखो सामिणो किज्जइ, सिबिगारूढो पहंमि गच्छंतो नाहो वि देवविमाणसंठियसालय-पडिमसनिहो राएइ, तहाविहं आगच्छमाणं भयवंतं दणं सव्वे वि पउरजणा संभमाओ बालगा पियरमिव अणुधावंति, मऊरा जीमूयं इव दूरओ पहुं दट्टुं केइ नरा उच्चयतरुसाहासु आरोहंति, के विय पहुं दट्टुं मग्गपासाएK आरूढा पचंडं आइच्यायावं चंदायवमिव मन्नेइरे, केवि कालक्खेवाऽसहिरा आसे न आरोहंति किंतु सयं चिय पहमि तुरियं आसा इव पेवमाणा गच्छंति, के वि जलेसु मच्छा इव लोगाणं / 1 अतिप्रनष्टसेतूनि / 2 बन्दिवृन्दैः / 3 प्रीणितश्रवणः / 4 जीमूतम् मेघम् / 5 प्लवमानाः।
SR No.004443
Book TitleSiri Usahanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykastursuri, Chandrodayvijay Gani
PublisherNemi Vigyan Kastursuri Gyanmandir
Publication Year1968
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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