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________________ 50 1 - 2 - 1 - 1 (63) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दीर्घ आयुष्य स्थितिवाले जो लोग उपक्रम के कारणों के अभाव में पूर्ण आयुष्य की स्थिति का अनुभव करते हैं वे लोग भी वृद्धावस्था से जीर्ण देहवाले होने पर बुढापे में मरण से भी अधिक बूरी अवस्था का अनुभव करते हैं... इत्यादि यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : - आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में सामान्यतः जीव के अस्तित्व का एवं आत्मा और कर्म के सम्बन्ध का वर्णन किया गया है और पृथ्वी, जल आदि अव्यक्त चेतना वाले जीवों की सजीवता को स्पष्ट प्रमाणित करके यह बताया गया है कि- षट्काय का आरम्भसमारम्भ करने से कर्म का बन्ध होता है और फलस्वरूप संसार परिभ्रमण एवं दुःख परम्परा का प्रवाह बढ़ता है। इस लिए इस बात पर बल दिया गया है कि- मुमुक्षु को आरम्भ-समारम्भ से निवृत्त होना चाहिए। क्योंकि- आरम्भ-समारम्भ से सर्वथा निवृत्त होने पर ही साधक मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। यदि थोडे शब्द में कहें, तो प्रथम अध्ययन में मोक्ष साधना के मूलभूत आ अहिंसा का सूक्ष्म, विस्तृत एवं यथार्थ विवेचन किया गया है। . आध्यात्मिक साधना में अहिंसा का महत्त्व पूर्ण स्थान है। अहिंसा आत्मा का स्वाभाविक गुण है, और साधना का मूल केन्द्र है। सभी धार्मिक अनुष्ठान इसी अहिंसा से हि सजीवन हैं... इसी के आधार पर पल्लवित, पुष्पित एवं फलित होते हैं। अहिंसा के अभाव में कोई भी साधना जीवित नहीं रह सकती है... पञ्च महाव्रतों में अंतिम के चारों महाव्रत अहिंसा से संबद्ध हैं। जिस साधक के जीवन में अहिंसा, दया, अनुकम्पा, साम्यभाव का झरना नहीं बह रहा है, वहां सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का विकास होना भी असंभव है। अहिंसा के शीतल, सरस एवं मधुर जल से अभिसिंचित होकर ही मोक्ष साधना का वृक्ष हरा-भरा रह सकता है, एवं पल्लवित-पुष्पित हो सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि- अहिंसा हि साधना का प्राण है। सूत्रकार के शब्दों में स्पष्ट ध्वनित होता है कि- “जो षट्काय के आरम्भ से सर्वथा निवृत्त होता है, वही मुनि परिज्ञात कर्मा है, अन्य नहीं'। अहिंसा की साधना के लिए जीवों का परिज्ञान होना जरूरी है। इस अपेक्षा से प्रथम * अध्ययन में विभिन्न 84 लाख योनियों में परिभ्रमणशील जीवोंके अस्तित्व का विवेचन किया गया है। इससे मुमुक्षु को यह जानने की सहज ही जिज्ञासा होती है कि- यह संसार क्या है ? और इस संसार पर विजय कैसे पाई जा सकती है ? इस प्रश्न का समाधान लोकविजय नामक द्वितीय अध्ययन में किया गया है। प्रस्तुत अध्ययन में लोक-शब्द का अर्थ है- कषाय या राग-द्वेष, जो भाव लोक कहा जाता है। उसके विपरीत द्रव्य, क्षेत्र आदि लोक भी माने गए हैं। परन्तु यहां इस ग्रंथ
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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