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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 -1 - 1 (23) 49 संसार में कितनेक मनुष्यों को क्षुल्लकभव स्वरूप अंतर्मुहूर्त्तमात्र अति अल्प आयुष्य होता है, और कितनेक मनुष्यों को उत्तरोत्तर एक दो आदि समयादि की वृद्धि से तीन पल्योपम पर्यंत आयुष्य होता है... अथवा तो संयम-जीवन अति अल्प है... वह इस प्रकार- अंतर्मुहूर्त से लेकर देशोन पूर्वक्रोड वर्ष पर्यंत का संयम-आयुष्य सागरोपम की दृष्टि से अति अल्प हि है... अथवा तो तीन पल्योपम की स्थिति प्रमाण आयुष्य भी अल्प हि है, क्योंकि- इस आयुष्य कर्म में अंतर्मुहूर्त को छोडकर शेष सभी का अपवर्तन हो शकता है... कहा भी है कि- उत्कृष्ट योग में बंध के अध्यवसाय स्थान में आयुष्य का जो उत्कृष्ट बंधकाल है उस उत्कृष्ट आयुष्य को बांधकर देवकुरु आदि भोग भूमी में उत्पन्न होनेवाले कितनेक युगलिक मनुष्य एवं तिर्यंचों के तत्काल हि अति अल्प आयुष्य को छोडकर शेष सभी आयुष्य का अपवर्तन होता है... यह बात अपर्याप्त जीवों में अंतर्मुहूर्त के काल में हि जानीयेगा... पर्याप्त होने के बाद तो अपवर्तन नहिं होता है... अथवा सामान्य से सोपक्रम आयुष्यवाले का आयुष्य सोपक्रम और निरुपक्रम आयुष्यवालों का आयुष्य निरुपक्रम है... जब प्राणी अपने आयुष्य के तीसरे भाग में अथवा. तीसरे के भी तीसरे भाग में अथवा जघन्य से अंतर्मुहर्त प्रमाण आयुष्य शेष रहे तब आत्मप्रदेश रचना की नाडि के अंदर होनेवाले आयुष्यकर्म वर्गणा के पुद्गलों को विशेष प्रयत्न से ग्रहण करतें हैं तब निरुपक्रम आयुष्य होता है, अन्यदा अर्थात् अन्य समय में तो सोपक्रम आयुष्य होता है... . उपक्रम तो उपक्रम के कारणों से होता है... और वे कारण यह हैं... दंड, चाबुक, शस्त्र, दोरडी; अग्नि और जल में डूबना, विष (जहर), व्याल याने सर्प, शीत, गरमी, अरति, भय, भूख, तरस, रोग, मुत्रनिरोध, मलनिरोध, बार बार भोजन का अजीर्ण होना और वृद्ध होना... तथा रगडन, घर्षण, पीलन, इत्यादि से आयुष्य का उपक्रम होता है... अपने आप से, अन्य से, यहां वहां चारों और से सन्मुख दौडती हुइ आपदा याने संकटवाला जो कोइ मनुष्य क्षणमात्र भी जीवित रहता है वह उसकी निपुणता है... वह एक बडा आश्चर्य हि है... जैसे कि- अतिशय भूख से पीडित प्राणी के मुख में रखा हुआ सरस (अच्छा) छोटासा फल दांतों के बीच कितना समय बिना चबाया रह शकता है ? अर्थात् प्राणी उस फल को तत्काल खा जाता है... उच्छ्वास की मर्यादावाले प्राण हैं, और वह उच्छ्वास वायु याने पवन है, तथा वायु से चंचल और कोइ नहिं है, अतः क्षणमात्र भी जो आयुष्य याने जीवन है वह निश्चित हि अद्भुत याने आश्चर्यकारी है...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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