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________________ 481 - 2 - 1 - 1 (63) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है, निधान भूमि में छुपानेके बाद रात में सुख से सो नहिं शकता, और दिन में भी शंकाशील रहता है... तथा उस निधानवाली भूमी को हमेशा देखता रहता है, पत्थर मिट्टी आदि से छुपाता है, और चिह्न को बदलते रहता है, थोडा सा भी भोजन सुख से खा नहि शकता, न तो कीसी को खाने देता... और घर में थोडा भी विश्राम नहि लेता, निरंतर अधिक धन प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करता रहता है... __ अब वह लोभी जीव लोभ के उपद्रव से विनष्ट-शुभचित्तवाला, कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से रहित और एक मात्र धन कमाने की दृष्टिवाला होकर इस जन्म में और जन्मांतर में अशुभ फल देनेवाली क्रियाएं करता है... जैसे कि- निल्छन याने पशुओं के शरीर के किसी अवयवका छेदन, गलकर्तन, और चोरी आदि क्रियाएं करते रहता है... तथा सहसाकार याने पूर्वापर अर्थात् आगे पीछे के गुणदोषों को सोचे बिना यकायक अर्थात् तत्काल कार्य करनेवाला... वह इस प्रकार- लोभ रूप अंधकार से ढकी हुई दृष्टिवाला, केवल एक धनके हि विचारवाला तथा मांस की अभिलाषा से पक्षी, पशुओं की पीडा याने = दु:खों का विचार किये बिना उन पशु-पक्षीओं के अंगोपांग के छेदनादि से उनका वध करता है... क्योंकिलोभ के परवश हुआ, धन की हि एक दृष्टिवाला, धनके हि मनवाला, ओर धन के लिये हि प्रयत्न करनेवाला होने से धन को हि देखता है, पापारंभ के दुःख-संकट को नहि देखता... इसीलिये तो कहते हैं कि- विनिविष्टचित्त-अनेक प्रकार से धन प्राप्ति के लिये स्थापित चित्तवाला, अथवा मात-पितादि के अनुराग से शब्दादि विषयों के उपभोग में स्थापित चित्तवाला... पाठांतर-विनिविष्टचेष्टः याने धनकी प्राप्ति के लिये विविध प्रकार से मन-वचन एवं काया की परिस्पंदन स्वरूप चेष्टावाला... इस प्रकार मात-पितादिसंयोगार्थी, अर्थालोभी. आलुपक, सहसाकारी और विनिविष्टचित्त (विनितिष्टचेष्टा) वाला जीव ,क्या करता है ? वह अब कहतें हैं... मात-पितादि में अथवा शब्दादिविषयसंयोग में स्थापित चित्तवाला वह जीव पृथ्वीकायादि जीवों के विनाश करनेवाले शस्त्र स्वरूप आरंभ में पुनः पुनः = बार बार प्रवृत्त होता है... अर्थात् स्वकायशस्त्र, परकायशस्त्र और उभयकायशस्त्र के द्वारा पृथ्वीकाय आदि जीवों के वध में प्रवृत्त होता है... एवं अट्ठारह पापस्थान कों का सेवन करता रहता है... यदि जीवन अजर अमर हो तब अथवा दीर्घ आयुष्य हो तब वर्तमान काल के जीवों को यह कार्य उचित माना जाय, किंतु मनुष्य न तो अजर अमर है और न तो दीर्घ आयुष्यवाला है... यह बात अब सूत्र के पदों से कहते हैं- आयुष्य निश्चित हि अल्प है... आयुष्य याने एक जीवन की स्थिति के लिये उपभोग में आनेवाले आयुष्यकर्म के पुद्गल... इस
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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