________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-1-1 (83)卐 51 में प्रमुखता भाव लोक की है। क्योंकि- द्रव्य लोक का अस्तित्व भाव लोक पर आधारित है। कारण स्पष्ट है कि- राग-द्वेष एवं कषाय युक्त परिणामों से कर्मका बन्धन होता है और परिणाम स्वरूप आत्मा एक योनि से दूसरी योनि में परिभ्रमण करती रहती है। इसी परिभ्रमण का नाम संसार है और इस संसार का मूल बीज राग-द्वेष है। और राग-द्वेष हि भाव लोक हैं। इससे स्पष्ट हो गया कि- द्रव्य लोक का मूल भाव लोक है। अत: भाव लोक पर विजय प्राप्त कर लेने पर द्रव्य लोक पर विजय सहज ही हो जाता है। मूल का उन्मूलन कर देने पर शाखा-प्रशाखा; पत्र-पुष्प आदि का विनाश तो स्वयं ही हो जाता है। क्योंकि- वृक्षको सारा पोषण मूल से मिलता है। मूल के अभाव में उन्हें पोषण नहीं मिलेगा और पोषण के अभाव में वे वृक्ष जीवित नहीं रह सकते। मूल का नाश होते ही संसार स्वरूप वृक्ष का भी विनाश हो जाता है। इसलिए साधक को यह प्रेरणा दी गई कि- वह द्रव्य लोक पर विजय पाने की अपेक्षा भावलोक पर विजय पाने का प्रयत्न करे। भाव लोक याने राग-द्वेष का सर्वथा उन्मूलन करने का प्रयत्न करे। राग-द्वेष का उच्छेद कर दिया; तो फिर.द्रव्य लोक का उच्छेद तो स्वतः ही हो जायगा। अत: साधक को अपनी साधना की शक्ति राग-द्वेष एवं कषाय रूप भाव लोक पर विजय पाने में लगानी चाहिए। साधक का एक मात्र यह हि ध्येय एवं लक्ष्य होना चाहिए। __ प्रथम अध्ययन में एक सूत्र आया है 'जे गुणे से आवट्टे..........' अर्थात् जो गुण है वह हि आवर्त है / इस सूत्र को प्रस्तुत सूत्र के -जो गुण है वह मूल स्थान है और जो मूल स्थान है, वह गुण है इन पदों से तुलना करते हैं; तब गुण को आवर्त याने संसार कहने का कारण स्पष्टतः समझ में आ जाता है / संसार का मूल कषाय है और कषाय का आश्रय ये गुण हैं, अतः एव गुण को संसार कहना उपयुक्त ही है / क्योंकि- गुणों में आसक्त व्यक्ति के मन में राग-द्वेष, कषाय एवं आसक्ति युक्त भावों होने से कर्म का बन्ध होता है और परिणाम स्वरूप संसार के प्रवाह को प्रगति मिलती है / शब्दादि विषयगुण भी संसार के कारण हैं, इसलिए उन शब्दादि गुणों को आवर्त कहा गया है और वास्तव में कषाय का आधार होने के कारण उन्हें आवर्त -संसार कहना उचित ही है / यह बात स्पष्ट है कि- शब्दादि विषय गुणों के कारण हि आत्मा में तृष्णा, आसक्ति, कषाय एवं राग-द्वेष आदि का उद्भव होता है और आत्मा भौतिक भोगोपभोगों में मग्न रहता है, शब्दादि विषय-भोग में प्रवृत्त होता है / यों साधारणतः काम-भोग शब्द का प्रयोग विषयवासना की प्रवृत्ति के लिए किया जाता है अत: कामभोग का एक दूसरे से भिन्न अर्थ न समझ कर उसे एकार्थक ही समझा जाता है, वैषयिक दृष्टि से काम-भोग का इन्द्रियों एवं उनके विषय से सीधा संबन्ध होने से काम-भोग शब्दादि विषय रूप होने से एकरूपता के बोधक भी हैं