SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 36 卐१-२-०-०॥ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन || अंतराय कर्म के बंधकारण तीन है... 1. प्राणिवध आदि पाप कार्यों में आसक्त... 2. जिनपूजा-भक्ति में विघ्न = अवरोध करनेवाला.... 3. मोक्षमार्ग में विघ्न याने अंतराय करनेवाला... इन अंतराय कर्म के कारण से जीव इच्छित वस्तु प्राप्त नहिं कर शकता है... अब इन आठों कर्मों की स्थितिबंध का स्वरूप कहते हैं... वहां मूल एवं उत्तर प्रकृतिओं का उत्कृष्ट स्थितिबंध एवं जघन्य स्थितिबंध का स्वरूप कहेंगे... मुल कर्म उत्कृष्ट स्थिति जघन्य स्थिति 1 ज्ञानावरणीय 30 कोडाकोडी सागर अंतर्मुहूर्त... 2 दर्शनावरणीय 30 कोडाकोडी सागर अंतर्मुहूर्त... 3 वेदनीय 30 कोडाकोडी सागर 12 मुहूर्त 4 मोहनीय 70 कोडाकोडी सागर अंतर्मुहूर्त 5 आयुष्य 33 सागरोपम 6 नाम 20 कोडाकोडी सागर, 8 मुहूर्त 20 कोडाकोडी सागर 8 मुहूर्त 8 अंतराय 33 कोडाकोडी सागर जिस कर्म की बंधस्थिति जितने कोडाकोडी सागरोपम हो उतने हि सो वर्ष उन कर्मो की अबाधा स्थिति है... जैसे कि- ज्ञानावरणीय कर्म की बंधस्थिति 30 कोडाकोडी सागरोपम है तो उसकी अबाधाकाल 3000 वर्ष है... अबाधाकाल पूर्ण होने के बाद उस कर्म के उदय में जीव को कर्म (प्रदेश एवं विपाक) का अनुभव होता है... इसी प्रकार सभी कर्मों में स्वयं हि समझ लें... किंतु आयुष्यकर्म में उत्कृष्ट अबाधाकाल पूर्वकोटि वर्ष का तीसरा भाग है, और जघन्य अबाधा सर्वत्र अंतमुहूर्त हि है, क्योंकि- अंतर्मुहूर्त के असंख्य भेद हैं... आयुष्य कर्म जघन्य स्थितिबंध क्षुल्लक भव है... अर्थात् एक श्वासोच्छ्वास का सत्तरहवा भाग... अब उत्तर कर्म प्रकृतिओं का उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थितिबंध कहते हैं... उनमें प्रथम उत्कृष्ट स्थितिबंध कहतें हैं... मति आदि पांच ज्ञानावरणीय... निद्रा आदि नव दर्शनावरणीय, असाता वेदनीय, दान आदि पांच अंतराय... इन 20 उत्तर प्रकृतिओं का उत्कृष्ट स्थितिबंध 30 कोडाकोडी सागरोपम हैं... तथा स्त्रीवेद, साता वेदनीय, मनुष्यगति एवं मनुष्य आनुपूर्वी इन चार कर्मो की उत्कृष्ट स्थिति 15 कोडाकोडी सागर है... मिथ्यात्व मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति 70 कोडाकोडी सागरोपम तथा सोलह कषाय की 40 कोडाकोडी, नपुंसकवेद, अरति, 7 गोत्र 'अंतर्मुहूर्त...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy