________________ 301 -2-0-0 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मिश्रमनोयोग और 4. अनुभय याने असत्यामृषा मनोयोग... वचन योग के भी मनोयोग की तरह चार भेद हैं और काययोग के सात भेद हैं... 1. औदारिक शरीर, 2. औदारिक मिश्र, 3. वैक्रिय, 4. वैक्रियमिश्र, 5. आहारक, 6. आहारकमिश्र, 7. तैजसकार्मणकाययोग... अब यह चार प्रकार के मनोयोग मन:पर्याप्ति से पर्याप्त ऐसे मनुष्य आदि को होते हैं... वचनयोग बेइंद्रियं आदि को और औदारिक काययोग मनुष्य एवं तिर्यंच जीवों को शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद... और शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने से पहेले औदारिकमिश्र काययोग होता है... तथा केवलज्ञानी को केवलिसमुद्घात में दुसरे छठे और सातवे समय में औदारिकमिश्र काययोग होता है... वैक्रिय काययोग देव, नरक और बादर पर्याप्त वायुकाय को होता है तथा वैक्रिय लब्धिवाले मनुष्य एवं तिर्यंच पंचेंद्रिय को भी वैक्रिय शरीर होता है, और वैक्रिय मिश्रकाययोग देव एवं नारकों को शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने से पहेले तथा अन्य जीवों को वैक्रिय शरीर बनाते समय होता है... आहारक काययोग आहारक लब्धिवाले चौद पूर्वधर साधुको होता है, और आहारक शरीर बनाते समय आहारक मिश्र काययोग होता है... तथा कार्मण काययोग विग्रह (अपांतराल) गति में और केवलीसमुद्घात में तीसरे चौथे एवं पांचवे समयमें होता है... ___अब यह पंद्रह (15) प्रकार के योग में से अपने अपने योग्य योगों से प्रत्येक संसारी जीव नाभि के स्थान में रहे हुए आठ रुचक प्रदेशों को छोडकर शेष सभी प्रदेशों से उन्ही अवगाहित आकाश प्रदेशों में रहे हुए कार्मण शरीर योग्य कर्मदलिकों को ग्रहण करते हैं... इसे प्रयोग-कर्म कहते हैं... आगमसूत्र में भी कहा है कि- "जब तक यह जीव सयोगी है, अर्थात् स्पंदित होता है तब तक आठ प्रकार के, सात प्रकार के, छह प्रकार के अथवा एक प्रकार के कर्म का बंध करता है... अर्थात् जब तक योग है तब तक कर्मबंध होता रहता 5. समुदान-कर्म- “सम् + आ + दा" धातु “अन' प्रत्यय यहां यह शब्द पृषोदरादि गण अंतर्गत होने से आ का उ आदेश होने से समुदान शब्द बना है... समुदान याने प्रयोग कर्म के द्वारा एक स्वरूप से ग्रहण कीये कर्मवर्गणाओं का मूल एवं उत्तर प्रकृति, स्थिति रस तथा प्रदेश स्वरूप बंध के भेद से आत्मा में क्षीर-नीर न्याय से जुडना याने कर्मों का ज्ञानावरणीयादि स्वरूप बंध होना... वे मूल प्रकृति बंध ज्ञानावरणीयादि भेद से (8) आठ प्रकार से है और उत्तर प्रकृति बंध 97 प्रकार से हैं... वे इस प्रकार१. ज्ञानावरणीय के पांच भेद हैं... 1. मतिज्ञानावरणीय, 2. श्रुतज्ञानावरणीय, 3. अवधिज्ञानावरणीय, 4. मनःपर्यवज्ञानावरणीय, 5. केवलज्ञानावरणीय... इन पांचों में केवलज्ञानावरणीय कर्म सर्वघाति है ओर बाकीके चार कर्म देशघाति है...