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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-२-0-05 है... अब यहां से आगे एक आदि परमाणु की वृद्धि से जघन्य से लेकर उत्कृष्ट पर्यंत की अनंतवर्गणाओं को तृतीय शून्य वर्गणा कहते हैं... और उनमें उत्कृष्ट वर्गणा जघन्य वर्गणा से असंख्यगुण अधिक परमाणुवाली हैं... वह असंख्यगुण का स्वरूप इस प्रकार है- अंगुल के असंख्येय भाग में रहे हुए प्रदेश राशि को आवलिका के असंख्येय भाग के समय की संख्या से बार बार कीये गये वर्गमूल का असंख्येय भाग के प्रदेश प्रमाण है... उसके बाद एक आदि प्रदेश की वृद्धिवाली जघन्य वर्गणा से लेकर उत्कृष्ट वर्गणा पर्यंत की अनंत वर्गणाएं चतुर्थ शून्य वर्गणा कहलाती है... यहां जघन्य से उत्कृष्ट वर्गणा में जो अंतर है वह कहते हैं- घनीकृत लोक की असंख्य श्रेणीयां, और वे. प्रतर के असंख्येय भाग प्रमाण है... उनसे आगे एक परमाणु की वृद्धि से जघन्य महास्कंध वर्गणा होती है पुन: एक आदि परमाणु की वृद्धि तब तक हो कि- उत्कृष्ट महास्कंध वर्गणा हो... और वे जघन्य वर्गणा से उत्कृष्ट महास्कंध वर्गणा क्षेत्रपल्योपम के असंख्येय गुण अथवा संख्येय गुण अधिक परमाणु से होती है... इस प्रकार संक्षेप से वर्गणाएं कही... विशेष से जानने की इच्छावाले जिज्ञासु “कर्मप्रकृति' ग्रंथ पढ़ें... वर्गणा का संक्षेप में कोष्टकऔदारिक अग्रहण योग्य 2. औदारिक ग्रहण योग्य औदारिक और वैक्रिय अग्रहण योग्य 4.. वैक्रियशरीर ग्रहण योग्य वैक्रिय और आहारक शरीर अग्रहण योग्य 6. आहारकशरीर ग्रहण योग्य आहारक और तैजस शरीर अग्रहण योग्य 8. तैजस शरीर ग्रहण योग्य तैजस और श्वासोच्छ्वास अग्रहण योग्य 10. श्वासोच्छ्वास ग्रहण योग्य ___ श्वासोच्छ्वास और भाषा अग्रहण योग्य 12. भाषा ग्रहण योग्य 13. भाषा और मनोयोग अग्रहण योग्य 14. मनोयोग ग्रहण योग्य 15. मनोयोग और कार्मणशरीर अग्रहण योग्य 16. कार्मणशरीर ग्रहण योग्य 17. ध्रुव वर्गणा 18. अध्रुव वर्गणा 19. प्रथमा शून्य वर्गणा 20. प्रत्येक शरीर वर्गणा 21. द्वितीया शून्य वर्गणा 22. बादर निगोद शरीर वर्गणा 23. तृतीया शून्य वर्गणा 24. सूक्ष्म निगोद शरीर वर्गणा 25. चतुर्थी शून्य वर्गणा 26. अचित्त महास्कंध वर्गणा अब प्रयोग-कर्म का स्वरूप कहते हैं... प्रयोग याने वीर्यांतरायकर्म के क्षयोपशम से प्रगट हुए वीर्य = पराक्रमवाला आत्मा जो कुछ विशेष प्रयत्न करे उसे प्रयोग कहते हैं... और वह मन-वचन एवं काया के भेद-प्रभेद से पंद्रह (15) प्रकार से है... इसे योग भी कहते हैं... वे इस प्रकार- मनोयोग के चार भेद... 1. सत्यमनोयोग, 2. असत्यमनोयोग, 3. 7. आहा
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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