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________________ 20 // 1-2-0-0 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % D नि. 177 जिस प्रकार- सभी वृक्षो के मूल भूमी में रहे हुए हैं, इसी प्रकार सभी कर्मो के कषाय स्वरूप मूल संसार में रहे हुए हैं... प्रश्न- ऐसा कैसे माने कि- कषाय हि कर्म का मूल है ? उत्तर- कर्मबंध के कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग कहे गये है... आगम सूत्रमें भी कहा है कि- हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्मबंध के कितने स्थान है ? हे गौतम ! दो स्थान है राग और द्वेष... राग के दो प्रकार है माया और लोभ तथा द्वेष के भी दो प्रकार है क्रोध और मान... वीर्य-योग युक्त जीवों को इन चार स्थानों से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है... इसी प्रकार आठों कर्मों के बंध स्थान स्वयं समझ लें... और मोहनीय कर्म के अंतर्गत रहे हुए वे कषाय हि आठों कर्मों के कारण है, और कामगुण के भी मूल कारण मोहनीय कर्म हि है... यह बात अब कहते हैं... नि. 178 आठ प्रकार के कर्मवृक्ष के मूल कषाय स्वरूप मोहनीय कर्म है, और कामगुण के मूल भी मोहनीयकर्म हि है... क्योंकि- स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद के उदय से कामविकार होता है... और यह तीन वेद मोहनीय के अंतर्गत है, इसीलिये संसार का प्रथम मूल कारण मोहनीय कर्म है... इस प्रकार परंपरा से भी संसार, कषाय और कामविकारों के मुख्य कारण मोहनीयकर्म हि है, और इस मोहनीयकर्म के क्षय से सभी कर्मो का क्षय निश्चित हि है... अन्यत्र भी कहा है कि- जिस प्रकार मस्तक सूची (सोइ) के क्षय से तालवृक्ष निश्चित विनष्ट होता है, इसी प्रकार मोहनीयकर्म के क्षय से सभी कर्मवृक्ष निश्चित हि विनाश होते हैं और इस मोहनीयकर्म के दो भेद हैं... 1. दर्शन मोहनीय, 2. चारित्र मोहनीय... यह बात नियुक्ति की गाथा से कहतें हैं... नि. 179 मोहनीय कर्म के दो भेद है... 1. दर्शनमोह, 2. चारित्रमोह... कामविकार चारित्रमोह हि है, अत: यहां इस आचारांग सूत्र में इस चारित्रमोह का हि अधिकार है... मोहनीय कर्म के दो भेद है, 1. दर्शन मोहनीय, 2. चारित्र मोहनीय... क्योंकि- कर्मबंध के मुख्य कारण दो हि है... वे इस प्रकार- अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, तप, श्रुत, गुरु, साधु और संघ के प्रति प्रत्यनीकता (द्वेष) से दर्शनमोहनीय कर्म का बंध होता है, और इस कर्म के कारण से यह जीव अनंत संसार समुद्र में परिभ्रमण करता रहता है... तथा तीव्र कषाय और अतिशय राग-द्वेष से यह जीव देशविरति एवं सर्वविरति के विनाशक ऐसे चारित्र-मोहनीय कर्म का बंध
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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