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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१-२-0-09 19 भावस्थान समझीयेगा... और उन कषायों पे विजय पाना यह यहां प्रस्तुत ग्रंथ में अधिकार है, प्रश्न- अब उन कषायों का कोन सा स्थान है ? कि- जिस आधार में वे कषाय उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - यह कषाय शब्दादि विषयों के आश्रय से होते हैं अत: उन शब्दादि विषयों का स्वरूप . नियुक्ति गाथा से कहते हैं... नि. 176 शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध यह पांच कामगुण है, अतः इन कामगुण-विषयों से जीव में कषाय होतें हैं, अतः यह कषाय हि इस संसार का मूलस्थान है... इच्छा, अनंग स्वरूप काम है, विषयों के गुण जिसके आधार से होते है, वह काम चित्तमे विकारों को प्रगट करता है, वे विषय शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध है यह पांच समस्त (सभी) या व्यस्त (कोइ भी दो-तीन) विषयो में विषयसुख के इच्छुक, मिथ्यादृष्टि, संसार के अनुरागी, राग एवं द्वेष स्वरूप तिमिर = अंधकार से नष्ट दृष्टिवाले जीव को अच्छे या बुरे विषयों की प्राप्ति में कषाय की उत्पत्ति होती है और कषाय से हि संसार-वृक्ष उत्पन्न होता है, इसीलिये शब्दादि विषयों से उत्पन्न हुए कषाय हि संसार का मूलस्थान है... सारांश यह है कि- रागादि से विनष्ट चित्तवाला तथा परमार्थ को नहि जाननेवाला जीव सुख के कारण न होते हुए भी विषयों को सुख का कारण मानता है, अत: ऐसा जीव अंधे से भी अतिशय अंध ऐसा यह कामी जीव शब्दादि विषयों में खुश होता है... इसीलिये तो कहा है किअंध मनुष्य उसे कहते हैं कि- जगत में सामने रही हुई वस्तु को जो मनुष्य नहिं देखता है... किंतु रागान्ध मनुष्य तो ऐसा है कि- जो सामने रही हुइ वस्तु में जो है उसे नहिं देखता किंतु उसमें जो नहि है उसे देखता है... इसीलिये तो कहते हैं कि- कामी मनुष्य अशुचि (मलमुत्र-लोही-मांस आदि) के भंडार ऐसी स्त्री के शरीर में कुंद (चमेली के फुल का एक प्रकारडोलर) कमल, पूर्ण चंद्रमा, कलश, एवं समृद्ध लता-पल्लवों का आरोप करके खुश होता है... अथवा तो कठोर कर्कश शब्द आदि में द्वेष-रोष धारण करता है, इसीलिये तो कहतें हैं कि- शुभ एवं अशुभ शब्दादि विषय हि कषायों का मूलस्थान है... अतः शब्दादि विषय हि संसार का मूलस्थान है... यह इस गाथा का सारांश है... प्रश्न- शब्दादि विषय से कषाय होता है, ऐसा तो मान लिया, किंतु उनसे संसार कैसे हो ? उत्तर- कर्मो की स्थिति का मूल कषाय हि है, और संसार का मूल कर्मो की स्थिति है, तथा संसारी जीवों को कषाय अवश्य होते हि है... यह बात अब कहतें हैं...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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