________________ 181 -2-0-0 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 14. अचलस्थानके चार भेद : 1. सादि सपर्यवसान, 2. सादि अपर्यवसान, 3. अनादि सपर्यवसान, 4. अनादि अपर्यवसान... वे इस प्रकार१. सादि सपर्यवसान- परमाणु आदि द्रव्य का एक प्रदेशादि में रहना, वह जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से असंख्यकाल... . 2. सादि अपर्यवसान- सिद्ध परमात्माओं का भविष्यत्काल... अनादि सपर्यवसान- भूतकाल में घटित होता है, और शैलेशीकरण के अंतिम समय में तैजस-कार्मण शरीर और भव्यत्व में यह भंग घटित होता है... 4. अनादि अपर्यवसान- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय में यह भंग घटित होता है... गणना-स्थान : एक दो से लेकर शीर्षप्रहेलिका तकसंधान-स्थान के दो भेद हैं- 1. द्रव्य 2. भाव... पुनः एक एक के दो दो भेद हैं- 1. छिन्न, 2. अच्छिन्न... उनमें 1. द्रव्य-छिन्न-संधान = कंचुक आदि... 2. द्रव्य अछिन्न संधान = तंतु आदि के उत्पन्न होनेवाले सूक्ष्म पक्ष्म रुवाटें... भावसंधान के दो भेद = 1. प्रशस्त, 2. अप्रशस्त... , 1. प्रशस्त अच्छिन्न संधान- उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी में आरोहण करनेवाले जीव के अपूर्व संयमस्थान अच्छिन्न होते हैं, अथवा श्रेणी के अभाव में भी प्रवर्धमान कंडक के संयमस्थान अच्छिन्न होते हैं... 2. ___ छिन्न प्रशस्त भाव संधान- औपशमिक आदि भाव से औदयिक आदि भाव में गये हुए जीव का पुनः शुद्ध परिणाम से वहीं औपशमिकादि भाव में जाना... अप्रशस्त अच्छिन्न भाव संधान- उपशम श्रेणी से पतन को पाते हुए अविशुद्धयमान परिणामवाले जीव को अनंतानुबंधि तथा मिथ्यात्व के उदय पर्यंत अथवा उपशम श्रेणी के अभाव में भी कषाय के कारण से कर्मबंध के अध्यवसाय स्थानों को उत्तरोत्तर अवगाहन (स्पर्शना) करनेवाले को होता 15. अप्रशस्त छिन्न भाव संधान- औदयिक भाव से औपशमिकादि भाव में संक्रमित होकर पुनः औदयिक भाव में जाना... यहां दो द्वार एक साथ कहे गये है... वहां संधान स्थान द्रव्य संबंधित है वह संधानस्थान और इतरशेष जो है वह भाव संबंधित है... अथवा कषाय का जो स्थान है वह