________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका ॥१-२-0-0卐 17 6. ऊर्ध्वस्थान- कायोत्सर्ग (काउस्सग्ग) आदि... उपलक्षण से बैठा हुआ पद्मासन आदि... 7. उपरति- विरति - देशविरति-श्रावकों के व्रत... सर्वविरति-साधुओं के महाव्रत... वसति-स्थान- गांव, नगर के घरों मे जहां निवास कीया जाय (उपाश्रय-पौषधशाला) 9. संयमस्थान- सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यात संयम... इन पांचों के भी असंख्य असंख्य संयमस्थान हैं... असंख्य याने कितने ? यह बात अतींद्रिय है, अतः साक्षात् तो कह नहिं शकतें तो भी आगम सूत्र के माध्यम से उपमा द्वारा कहते हैं... वह इस प्रकार- इस विश्व में एक समय में असंख्य लोकाकाश के प्रदेश राशि-संख्या प्रमाण अग्निकाय के जीव उत्पन्न होते हैं और उससे असंख्य गुण. अधिक अग्निकाय के (जीवंत) जीव होते हैं, और उससे भी उनकी स्वकायस्थिति असंख्य गुण अधिक हैं, और उससे अनुभाग (रस) बंध के अध्यवसाय स्थान असंख्यगुण अधिक हैं... संयमस्थान भी उतने हि सामान्य से कहे गये है, अब विशेष से संयमस्थान कहते हैं- सामायिक छेदोपस्थापनीय एवं परिहारविशुद्धि संयम के प्रत्येक के संयमस्थान असंख्य लोकाकाश के प्रदेश राशि-संख्या प्रमाण है... जब कि- सूक्ष्म संपराय चारित्र अंतर्मुहूर्त काल प्रमाण है अत: अंतर्मुहूर्त के समय की संख्या प्रमाण असंख्य संयमस्थान है और यथाख्यात चारित्र के तो जघन्य से लेकर उत्कृष्ट तक एक हि संयमस्थान है... अथवा संयम श्रेणी के अंतर्गत संयमस्थान ग्रहण करें... और वह संयम श्रेणी अनुक्रम से होती है, वह इस प्रकार- अनंत चारित्र के पर्याय से निष्पादित (उत्पन्न) एक संयमस्थान है, और ऐसे असंख्य संयमस्थान से एक कंडक होता है और ऐसे असंख्य कंडक से एक षट्स्थानक होता है, और ऐसे असंख्य षट्स्थानकों की एक श्रेणी होती है... प्रग्रहस्थान- अच्छी तरह से जिनका वचन ग्रहण करने योग्य हो वह प्रग्रहवाक्य-नायक... प्रग्रह स्थान के दो भेद हैं... 1. लौकिक, 2. लोकोत्तर... 1. लौकिक के पांच भेद : 1. राजा, 2. युवराज, 3. महत्तर, 4. अमात्य, 5. कुमार... 2. लोकोत्तर के भी पांच भेद : 1. आचार्य, 2. उपाध्याय, 3. प्रवर्तक, 4. स्थविर, 5. गणावच्छेदक... योधस्थान के पांच प्रकार : 1. आलीढ, 2. प्रत्यालीढ, 3. वैशाख, 4. मंडल, 5. समपाद...