________________ 161 - 2-0-0 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन in x i . मूल का स्वरूप कहने के बाद अब “स्थान" पद के पंद्रह (15) निक्षेप कहतें हैं... नि. 175 1. नाम, 2: स्थापना, 3. द्रव्य, 4. क्षेत्र, 5. काल, 6. ऊर्ध्व, 7. उपरति (विरति), 8. वसति, 9. संयम, 10. प्रग्रह (नायक), 11. योध, 12. अचल, 13. गणना, 14. संधान, और 15. भावस्थान... 1. नाम स्थान एवं 2. स्थापना स्थान सुगम है... द्रव्यस्थान- 1. ज्ञ शरीर, 2. भव्य शरीर, 3. तद्व्यतिरिक्त.. उनमें तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद-सचित द्रव्य, अचित द्रव्य और मिश्रद्रव्यस्थान... क्षेत्रस्थान- भरतक्षेत्र आदि अथवा ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यग्लोक... अथवा तो जिस क्षेत्र में स्थान पद की व्याख्या करें... अद्धा याने कालस्थान- उसके दो प्रकार है... 1. कायस्थितिस्थान, 2. भवस्थितिस्थान... उनमें कायस्थिति = पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुकाय की असंख्य उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल, और वनस्पतिकाय की अनंत उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल... तथा विकलेंद्रिय (बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चउरिंद्रय) की संख्यात हजार वर्ष, और पंचेंद्रिय तिर्यंच तथा मनुष्य की स्वकायस्थिति सात या आठ भव है... अब भवस्थिति स्थान कहते हैं- वायुकाय को तीन हजार वर्ष, अप्काय (जल) को सात हजार वर्ष, वनस्पतिकाय को दश हजार वर्ष, और पृथ्वीकाय को बाइस (22) हजार वर्ष का आयुष्य (भवस्थिति) होता है... अग्निकाय को मात्र तीन अहोरात्र (24 प्रहर) शंख आदि बेइंद्रिय को बारह वर्ष, कीडी आदि तेइंद्रिय को 49 दिवस, भ्रमर-मखी आदि चउरिंद्रिय को 6 महिने का आयुष्य होता है... पंचेंद्रिय तिर्यंच एवं मनुष्य का आयुष्य तीन पल्योपम, तथा देव और नारकों का आयुष्य (भवस्थिति) और कायस्थिति 33 सागरोपम हि है, क्योंकिउनकी अन्य भिन्न कायस्थिति नहि है... अतः यह उनकी उत्कृष्ट भवस्थिति स्थान है... और उत्कृष्ट कायस्थिति स्थान भी है... अब जघन्य स्थितिस्थान कहतें हैं... सभी जीवों का जघन्य स्थितिस्थान अंतर्मुहूर्त काल प्रमाण है... किंतु- देव और नारक को जघन्य स्थितिस्थान दश हजार वर्ष है... अथवा अद्धास्थान- समय, आवलिका, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, पुद्गलपरावर्त, अतीत (भूतकाल), अनागत .(भविष्यत् काल) और सर्वकाल...