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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-0-0 // में मुर्खता तथा मधुर बोलनेवाले में दीनता, तेजस्वी = पराक्रमी में अभिमान, वक्ता में वाचालता, सहनशील में दुर्बलता... इस प्रकार कौन सा ऐसा गुण है जो दुर्जनों ने दोषारोपण से लांछित - दोषित न कीया हो ? (12) अगुण-गुण : अगुण (दुर्गुण) भी वक्र-जीव में कहीं कहीं गुण माना गया है... जैसे कि- गलि-बैल को स्कंध-खुंध में किण (दोष) होने से हि वह गाय-बैलों के बिच में सुख-शांति से बैठ शकता है... कहा भी है कि- दुर्जनता में अग्रेसर जीव कभी कभी अनुकूलतादि गुणो में अग्रेसरता पाता है... जैसे कि- बैलगाडी में न जोतने के कारण से किण = सुखा धाव, डंख के अभाव में गलि-बैल सुख से रहता है... (13) भव-गुण : जहां जीव नारक आदि रूप से जन्म लेता है वह नारक आदि भव... उसमें जो गुण वह भव-गुणः, यह भवगुण जीव में घटित होता है... जैसे किनारकजीव... नरक भव के कारण से हि अवधिज्ञानवाले होतें हैं, तीव्रतर वेदना-पीडा सहन करतें हैं और तिल जितने छोटे छोटे शरीर के टुकडे होने पर भी संधान याने शरीर पुनः अखंड बन जाता है... तिर्यंच याने पशु-पक्षी अच्छे बुरे के विवेक से रहित होते हैं तो भी पक्षीओं को आकाश में गमन की लब्धि होती है, और गायबैल आदि को तृण आदि का भोजन भी दुध-बल आदि शुभ-प्रभाववाला होता है... और धर्म पुरुषार्थ के द्वारा मनुष्य सभी कर्मो का क्षय कर शकतें हैं तथा देवों को सभी शुभ मनोज्ञ अनुभाव देवभव के कारण से हि होता है... (14) शीलगुण = अन्य जीव याने मनुष्य आक्रोश-ताडन करे तो भी शील-सदाचार गुण से संपन्न मनुष्य क्रोधित नहिं होता है, अथवा जब शब्द आदि पौद्गलिक विषय अच्छे या बुरे होते हैं तब यह पुद्गल का स्वभाव है ऐसा जानकर साधु मध्यस्थता को धारण करते हैं... (15) भावगुण = औदयिक आदि भावों के गुण = भावगुण... जीव और अजीव में यह भावगुण होते हैं... संसारी जीव में औदयिक आदि छह (6) भाव गुण होते हैं... 1. औदयिक गुण के दो भेद. प्रशस्त और अप्रशस्त. तीर्थंकर नामकर्म, आहारक शरीर आदि प्रशस्त औदयिक भावगुण... और अप्रशस्त भावगुण - शब्दादि विषयों के उपभोग, तथा हास्य, रति अरति आदि... औपशमिक भावगुण - उपशम श्रेणी में आयुष्यकर्म के क्षय से अनुत्तर विमान में उत्पत्ति और अशुभ कर्मों के उदय का अभाव... 3. क्षायिक- क्षायिकभावगुण के चार प्रकार है,
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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