________________ (4) श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-2-0-0" शरीर बनाने के लिये आत्मप्रदेशों को बहार फेंकता है... और तेजोलेश्या लब्धिवाला जीव तैजस समुद्घात में तेजोलेश्याके प्रयोग के समय आत्मप्रदेशों को बहार फेंकता है... तथा आहारक लब्धिवाले चौद पूर्वधर साधु वस्तु-पदार्थ के स्वरूप संबंधित संदेह को दूर करने के लिये अथवा तीर्थंकर परमात्मा को समवसरणादि ऋद्धि देखने के लिये आहारक समुद्घात के द्वारा आहारक शरीर बनाने के लिये आत्मप्रदेशों को बहार फेंकता है... और केवली समुद्घात में आत्मा आयुष्य कर्म का अल्प होना और वेदनीय नाम एवं गोत्र कर्म की अधिकता होने की स्थिति में चौदह राजलोक प्रमाण आकाशखंड में अपने आत्म प्रदेशों को दंड-कपाट मंथान आदि क्रम से समस्त लोक में विकास एवं संकोच के द्वारा आठ समय-काल में संपूर्ण लोक में फैलकर अपने शरीर में समातें हैं... द्रव्यगुण का स्वरूप पूर्ण हुआ, अब क्षेत्र गुण आदि निक्षेप के स्वरूप कहतें हैं... नि. 172 क्षेत्रगुण देवकुरु आदि... (5) __ कालगुण सुषमसुषम आदि... (6) फलगुण सिद्धि... मोक्षप्राप्ति... (7) पर्यवगुण . . निर्भजना = निश्चित भाग-पर्याय... (8). गणना-गुण - द्विक त्रिक आदि... (9) करणगुण - कला-कौशल्य... (10) अभ्यासगुण - भोजन आदि... (11) गुण-गुण - ऋजुता आदि... - (12) अगुण-गुण - वक्रता आदि... (13) भव-गुण - नरक-तिर्यंच-मनुष्य-देव गति आदि... (14) शील-गुण - ज्ञान-आदि-क्षमा आदि... (15) भाव-गुण - चेतनता आदि... (जीव) तथा रूप रस आदि... (अजीव) इस प्रकार संक्षेप से गुण के 15 निक्षेप कहकर अब विस्तार से कहते हैं... क्षेत्रगुण : देवकुरु, उत्तरकुरु, हरिवर्ष, रम्यक्, हैमवत, हैरण्यवत तथा 56 अंतरद्वीप - स्वरूप अकर्मभूमी का यह गुण है कि- वहां के मनुष्य युगलिक होते हैं, देवकुमार जैसे सदा स्थिर यौवनवाले, निरुपक्रम (अखंड) आयुष्यवाले, मनोज्ञ (सुंदर) शब्दादि विषय सुखवाले, स्वभाव से हि नम्र, सरल, और प्रकृति से भद्रकगुणवाले और देवलोक में हि जानेवाले होते हैं... (5) कालगुण : भरत एवं ऐरावत क्षेत्र में एकान्त सुषमादि तीन आरे के काल में युगलिक