________________ 101 - 2 -0-0 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन तब विरुद्ध धर्मवाले घट-पट आदि की तरह भेद हो... इस प्रकार भेद और अभेद की बातों से व्याकुल मतिवाला शिष्य प्रश्न करता है किदोनों प्रकार से भी दोष दिखता है तो कैसे स्वीकारें ? तब गुरुजी कहते हैं कि- इसीलिये तो हम कहते हैं कि- भेदाभेद हि योग्य है, वह इस प्रकार- अभेद पक्ष में द्रव्य हि गुणमय है, और भेद पक्ष में द्रव्य में गुण रहता है... जैसे कि- गुण और गुणी, पर्याय और पर्यायवाला, सामान्य और विशेष, अवयव और अवयवी में भेदाभेद की व्यवस्था से हि आत्म-भाव का सद्भाव होता है... कहा भी है कि- पर्याय से भिन्न द्रव्य और द्रव्य से भिन्न पर्याय हो हि नहिं शकता, इसीलिये उत्पाद व्यय स्थिति के भंग = विकल्प हि द्रव्य का लक्षण है... अन्यत्र भी कहा है कि- हे प्रभु ! आपने कहे हुए नय स्यात् पद से युक्त है जैसे कि- सुवर्णरस से आविद्ध-युक्त लोह-धातु हि सुवर्ण रूप अभिप्रेत = इच्छित फल देनेवाला होता है, ऐसी, यह बात हितैषी बुद्धिशाली आर्य-पुरुष कहतें हैं... जिनमतवाले स्थविर-आचार्यों ने इस विषय में बहोत कुछ कहा है, इसलिये यहां विस्तार से नहि कहतें हैं... किंतु संक्षेप में नियुक्तिकार इतना कहते हैं कि- सभी द्रव्यों में मुख्य जो जीव द्रव्य है, उसमें भी इसी ही प्रकार से भेद एवं अभेद की विवक्षा से हि गुण रहे हुए है... नि. 171 संकोच और विकाश यह जीव का अपना गुण है... और बहुप्रदेशत्व गुण से संपूर्ण लोक में फैल जाता है...तथा सहयोगी-वीर्यवाला जीवद्रव्य अपने प्रदेशों के संकोच एवं विकाश के द्वारा आधार-क्षेत्र में दीपक के प्रकाश की तरह संकोच एवं विकाश को पाता है, और यह संकोच एवं विकास आत्मा का अपना सहज गुण है... भेद न हो वहां भी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है... जैसे कि- राहु का मस्तक, यह शीलापुत्रक का शरीर है... अथवा शरीर में उत्पन्न हुआ यह मस्तक है... तथा समुद्घात के कारण से जीव के प्रदेश संकुचित एवं विकसित होते हैं... समुद्घात याने प्रबलता से आत्म-प्रदेशों को यहां वहां चारों और फेंकना... और वह कषाय, वेदना, मरण, वैक्रिय, तैजस, आहारक एवं केवली समुद्घात के भेद से सात प्रकार से समुद्रघात होतें है... उनमें कषाय समुद्घात के समय आत्मा अनंतानुबंधि क्रोधादि कषायों के परवश होकर आत्मप्रदेशों को यहां वहां चारों और फेंकता है इसी प्रकार अतिशय वेदना-पीडा के कारण से आत्मा को वेदना समुद्घात होता है... तथा मरण समुद्घात के समय प्राणी मरण पाकर जहां उत्पन्न होना है वहां लोक के कोइभी स्थान पर्यंत आत्मप्रदेशों को बार बार प्रक्षेप (विकास) और संहार (संकोच) करता है... वैक्रिय समुद्घात में वैक्रिय लब्धिवाला जीव वैक्रिय