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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-0-04 एवं स्वयं के अन्य गुण न हो वह हि गुण है... उनके विधान = प्रकार भी ज्ञान इच्छा द्वेष रूप रस गंध स्पर्श आदि हैं... और उन ज्ञानादि के भी भेद-प्रभेद होते हैं... अतः द्रव्य एवं गुण अभिन्न होते हुए भी भिन्न है, इसमें कोई दोष नहि है... जैसे कि- सचित्त अचित्त एवं मिश्र भेदवाले द्रव्य में सचित्ततादि गुण तदाकार रूप से रहे हुए है... अचित्त द्रव्य के दो प्रकार है... 1. अरूपी 2. रूपी. उनमें भी अरूपी द्रव्य के तीन प्रकार है... 1. धर्म... 2. अधर्म... 3. आकाश... धर्मास्तिकाय का लक्षण है गतिसहायकता, अधर्मास्तिकाय का लक्षण है स्थिति-सहायकता, आकाशास्तिकाय का लक्षण है अवकाश दान... इन अरूपी द्रव्य में गुण भी अरूपी लक्षणवाला अगुरुलघुपर्याय स्वरूप है... धर्मास्तिकायादि में भी अपना अरूपी स्वरूप अपने अपने स्वरूप से उनमें रहा हुआ है, और अगुरुलघुपर्याय भी उनका पर्याय होने से वह भी अरूपी हि है... जैसे मिट्टी द्रव्य के मृपिंड, स्थासक कोश कुशूल पर्याय हैं... तथा रूपी द्रव्य भी स्कंध, देश, प्रदेश एवं परमाणु स्वरूप है, और रूप आदि गुण उनमें अभेद रूप से रहे हुए है... भेद से नहिं, क्योंकि- अपने स्वरूप की तरह संयोग एवं विभाग गुणो में नहि होते हैं... तथा सचेतन-जीवद्रव्य भी उपयोग लक्षणवाला है, और जीवद्रव्य के ज्ञान आदि गुण जीवद्रव्य से भिन्न नहीं है, यदि ज्ञान आदि गुण जीवद्रव्य से भिन्न माना जाय तब जीव अचेतन हो जायेगा... यदि आप कहोगे कि- भिन्न ऐसे ज्ञानादि गुण के योग से जीव सचेतन हो शकता है न ? . तब कहतें हैं कि- ऐसा आपका मानना यह कुबुद्धि का लक्षण है, गुरुचरणों की उपासना का अभाव हि स्पष्ट प्रतीत होता है... क्योंकि- खुद में जो शक्ति नहि है, वह कार्य अन्य से कभी नहि हो शकता... जैसे कि- अंध मनुष्य सेंकडों दीपक जलाने पर भी रूप को देखने में समर्थ नहि होता... सचित्त एवं अचित्त द्रव्य की तरह मिश्र द्रव्य में भी गुण की अभिन्नता अपनी बुद्धि से स्वयं कर लें... इस प्रकार द्रव्य एवं गुण में अभिन्नता का प्रतिपादन करने पर शिष्य कहता है कितो अब ऐसा कहो कि- द्रव्य से गुण अभेद हि है... तब गुरुजी कहते हैं कि- ऐसा भी नहिं है, क्योंकि- एकांत अभेद माना जाय तब एक इंद्रिय से जब अन्य गुण का ज्ञान होता है तब अन्य इंद्रियां की निष्फलता होगी, जैसे कि- आम्रफल के रूप आदि आंख आदि से प्राप्त होने पर रूप आदि से अभिन्न ऐसे आम-द्रव्य में रसनेंद्रियादि से रस आदि की भी प्राप्ति, रूप आदि के स्वरूप की तरह होती है... इस प्रकार हि अभेद हो शकता है, किंतु हां यदि रूप आदि की प्राप्ति होने पर अन्य रस आदि भी प्राप्त हो... अन्यथा = यदि ऐसा न हो
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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