________________ 472 // 1-5-6-6(184) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कष्ट आने पर उनकी सुरक्षा के लिये पुनः जन्म धारण करतें हैं इत्यादि... तथा वह सिद्धात्मा अमूर्त होने के कारण से असंग हैं... तथा वह सिद्धात्मा न तो स्त्री है, न तो पुरुष है, और न तो नपुंसक है... तथा परिज्ञ याने सभी आत्म-प्रदेशों से संपूर्ण विश्व को विशेष प्रकार से जानतें हैं तथा संज्ञ याने सामान्य प्रकार से संपूर्ण विश्व को देखतें हैं... अर्थात् वे केवलज्ञान एवं केवल दर्शन युक्त हैं... प्रश्न- मान लो कि- सिद्धात्मा (मुक्तात्मा) स्वरूप से भले हि प्रत्यक्ष न दिखे किंतु उपमा के द्वारा सूर्य की गति की तरह तो जान शकतें हैं न ? उत्तर- उपमा से भी नहि जान शकतें, क्योंकि- मुक्तात्माओं के स्वरूप की तुल्यता हो शके ऐसा कोइ पदार्थ इस विश्व में नहि हैं कि- जिन्हों के साथ मुक्तात्मा के ज्ञान एवं सुख की तुलना कर शकें... क्योंकि- मुक्तात्मा का स्वरूप वास्तव में लोकातीत है, अर्थात् इंद्रिय-गम्य नहि है... मुक्तात्माओं की सत्ता तो है, किंतु वर्णादि से रहित अरूपिणी सत्ता है... अर्थात् पूर्वोक्त दीर्घ, हस्व, इत्यादि से रहित है... तथा पद याने अवस्था विशेष से भी रहित है; वे अपद, तथा जिस से अर्थ याने वस्तु को जान-समझ शकें वह पद अर्थात् सांकेतिक नाम... किंतु मुक्तात्मा का स्वरूप वाच्य-वाचकभाव से रहित है, अतः अपद है... जो वस्तु वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शब्द में से कोई भी एक प्रकार के विशेषण से कही जाय वह वस्तु पद स्वरूप है... किंतु मुक्तात्मा को वर्णादि नहि हैं; अत: वे अपद हैं... ___ यहां पूर्व के सूत्र से “दीर्घ' इत्यादि विशेष स्वरूप का निराकरण कीया, अब सामान्य प्रकार से निराकरण करतें हैं... V सूत्रसार : पूर्व सूत्र में बताया गया है कि- आस्रव का निरोध करके एवं निर्जरा के द्वारा चार घातिकर्मों का क्षय करके आत्मा सर्वज्ञ बनती है। और सर्वज्ञ अवस्था में आयु कर्म के क्षय के साथ शेष तीन-वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म का सर्वथा क्षय करके आत्मा निर्वाण पद को प्राप्त करती है। प्रस्तुत सूत्र में इसी मोक्ष एवं मुक्तात्मा के विषय का विवेचन किया गया है। मोक्ष उस स्थिति का नाम है; जहां साधक समस्त कर्मों का आत्यन्तिक क्षय कर देता है। अब उसके लिए कुछ भी करना अवशेष नहीं रह जाता है। अतः आत्मा सभी प्रकार की बाधा-पीड़ाओं एवं कर्म तथा कर्म जन्य उपाधि से रहित हो जाता है; निरावरण ज्ञान एवं अनन्त आत्मसुख में रमण करता हुआ सदा-सर्वदा अपने शुद्ध आत्म-स्वरूप में स्थित रहता