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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 5 - 6 - 6 (184) 5 471 %3 शब्द की प्रवृत्ति संभवित नहि है... ___ मोक्षावस्था सकल विकल्पों से रहित है; औत्पत्तिक्यादि चार प्रकार की मति याने बुद्धि मोक्षावस्था को ग्रहण नहि कर शकती... तथा जीव कर्म सहित मोक्ष में जाता हि नहि है, अर्थात् कर्मो से मुक्त होकर हि आत्मा मोक्ष में जाती है... यह बात अब कहतें हैं... ओज याने एक अर्थात् सभी प्रकार के कर्मो के कलंक से रहित अकेला आत्मा, तथा जहां रहने के लिये औदारिकादि कोइ शरीर अथवा कर्म का होना नहि है, ऐसे मोक्ष के स्वरूप को जाननेवाला साधु... अथवा अप्रतिष्ठान याने सातवी नरक भूमी की स्थिति आदि के परिज्ञान से निपुण, अर्थात् लोकनाडि के पर्यंत भाग तक के स्वरूप का ज्ञान (जानकारी) होने से संपूर्ण लोक के स्वरूप का ज्ञाता है; ऐसा यहां कथन कीया है... यहां जो कहा गया था कि- मोक्षावस्था सभी प्रकार के स्वर-ध्वनि से कही नहि जाती... वह इस प्रकार... लोक के अग्रभाग स्थित सिद्धशिला के उपर की और कोश (गाउ) के छठे भाग प्रमाण क्षेत्र में रहे हए एवं अनंतज्ञान एवं अनंतदर्शनसे युक्त ऐसे वे सिद्धात्माएं संस्थान की दृष्टि से न तो दीर्घ याने लंबे है और न तो ह्रस्व याने टुंके हैं तथा वृत्त याने गोल नहि है, त्रिकोन भी नहि है और चौरस भी नहि है, तथा परिमंडल (चूडी) के आकार के भी नहि है... तथा वर्ण की दृष्टि से वे न तो काले है, न तो नीले है, न तो लाल हैं, न तो पीले हैं और न तो उज्ज्वल हैं... तथा गंध की दृष्टि से न तो सुगंधी है और न तो दुर्गंधी है... तथा रस की दृष्टि से न तो तिक्त याने तिक्खे है, न तो कडुवे है, न तो कषायरसवाले है, न तो खट्टे है और न तो मीठे है... तथा स्पर्श की दृष्टि से न तो कर्कश और न तो सुकोमल, न तो हलवे और न तो भारे, न तो ठंडे और न तो गरम, एवं न तो स्निग्ध (चीकने) और न तो रुक्ष (लुक्खे) तथा वे लेश्या रहित है... अथवा औदारिकादि काया = शरीर से रहित जैसे कि- वेदांतवादी कहतें हैं कि- मुक्तात्मा एक हि है और उसके शरीर में अन्य क्षीणक्लेशवाले जीव प्रवेश करते हैं; जैसे कि- सूर्य की किरणे सूर्य में प्रवेश करती हैं... किंतु मुक्तात्मा को शरीर हि नहि है, अतः यह बात कल्पना-मात्र हि है... तथा वह मुक्तात्मा कर्मबीज के अभाव में अरूह याने अजन्मा है... "शाक्य-मत के अनुसार मुक्तात्मा पुनः जन्म धारण करतें हैं" किंतु जिनमतमें ऐसा नहि है... कहा भी है कि- हे जिनेश्वर ! इस विश्व में जो जो मतवाले आपके शासन से प्रतिकूल चलतें हैं; वे मोह के राज्य में हि निवास करते हैं... वे कहते हैं कि- परमात्मा संसार का विच्छेद करके निर्वाण पद प्राप्त करतें हैं, और बादमें वे अपने शासन को माननेवालों को
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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