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________________ 470 1-5-6-6 (184) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : वह जन्म मरण के मार्ग को अतिक्रम करनेवाला है, मोक्ष में रत है। मोक्ष वा मोक्ष के सुख का शब्दों के द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता, तर्क उसमें काम नहीं करती, मति का वहां प्रयोजन नहीं अर्थात् मति के द्वारा वहां विकल्प उत्पन्न नहीं किया जा सकता, ऐसा केवल शुद्ध चैतन्य और ज्ञान, दर्शन तथा अक्षय सुख एवं अनन्त शक्तिमय सिद्ध भगवान है ! जो कि- अप्रतिष्ठान का ज्ञाता और परमपद का अध्यासी है तथा संस्थान की अपेक्षा से वह-सिद्ध भगवान्-न दीर्घ है; न ह्रस्व न वृत्ताकार है; न त्रिकोण, एवं न चतुष्कोण है; न परिमंडल के आकार-चूडी के आकारवाला। वर्ण की अपेक्षा से न कृष्ण है न नीला, न लाल है न पीला और न ही श्वेत है, गन्ध की अपेक्षा से न सुगन्ध युक्त है और न ही दुर्गन्धवाला है, रस की अपेक्षा न तिक्त है न कटुक, न कषाय न खट्टा और न मधुर है; एवं स्पर्श की अपेक्षा से वह न तो कर्कश है न कोमल, तथा न लघु है न गुरु, न उष्ण है न शीत और न स्निग्ध है न रुक्ष, तथा न वह कायवाला है या न लेश्यावाला है, इसी तरह न तो उसको कर्म रूपबीज है और न उसको किसी का संग है, वह न तो स्त्री है और न ही पुरुष और न ही नपुंसक है, वह सामान्य और विशेष ज्ञानवाला, अवस्था विशेष से रहित अनुपम केवल शुद्ध चैतन्य स्वरूप अरूपी सत्ता वाला, अक्षय सुख की राशि अनन्त शक्तियों का भंडार और ज्ञान दर्शन के उपयोग से युक्त हुआ विराजमान है। IV टीका-अनुवाद : वह केवलज्ञानी साधु जन्म एवं मरण के मार्ग एवं उसके कारणभूत कर्मो का अतिक्रमण करतें हैं, अर्थात् सभी कर्मो का क्षय करतें हैं, और सकल कर्मो के क्षय से प्रधान पुरुषार्थ स्वरूप एवं शास्त्रानुसार तपश्चर्या एवं संयमानुष्ठान के फल स्वरूप मोक्ष याने सिद्धशिला के उपर स्थिर होतें हैं और वहां वह आत्मा आत्यंतिक एवं ऐकांतिक ऐसा जो अनाबाध सख तथा क्षायिक ज्ञान और दर्शन गुण संपदाओं से युक्त हुआ अनंतकाल पर्यंत रहतें हैं... मोक्ष में आत्मा की ऐसी अलौकिक स्वरूप-स्थिति होती है कि- उसे हम लोग शब्दों से कह नहि शकतें... अर्थात् सभी शब्द-ध्वनि वचन वहां से निवृत्त होते हैं... क्योंकि- शब्द वाच्य-वाचक भाव के संबंध से हि प्रवृत्त होते हैं... वह इस प्रकार- प्रवृत्त होनेवाले शब्द वस्तु के रूप या रस या गंध या स्पर्श के कोइ भी एक विशेष धर्म को संकेत करके प्रवृत्त होतें हैं, और मोक्षावस्था वाले आत्मा में रूप-रस-गंध-स्पर्श आदि होते हि नहि हैं, इसलिये मोक्षावस्था शब्दों से कथन योग्य नहि है... तथा उत्प्रेक्षा भी नहि की जा शकती... क्योंकिउत्प्रेक्षा याने तर्क-कल्पना... वह विद्यमान पदार्थों के संभवित धर्म विशेष स्वरूप है; किंतु मोक्षावस्था में तो जगत के कोइ भी पदार्थ की कल्पना नहि की जा शकती, इसलिये वहां
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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