________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-5-6-6 (184) 469 और ४-अनन्त वीर्य-सुख को प्राप्त करने के लिए पहिले कर्म स्रोतों को रोकना आवश्यक है। अभिनव कर्मों के आगमन को रोके बिना जानादि का विकास नहीं हो सकता। इसके लिए साधक संयम-दीक्षा को स्वीकार करता है। संयम के द्वारा कर्मों के आगमन को रोकता है और निर्जरा के द्वारा पूर्व आबद्ध कर्मों का क्षय करता है। इस तरह चार घातिकर्म ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय कर्म का क्षय करके सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी बनता है। इस तरह संयम-साधना से राग-द्वेष का क्षय करके वीतराग अवस्था को प्राप्त होता है। फिर उसकी आत्मा में किसी तरह की आकांक्षा नहीं रह जाती है। वह समस्त इच्छा-आकांक्षाओं से रहित होकर अपने आत्म स्वरूप में रमण करता है। उसके ज्ञान में सब कुछ स्पष्ट रहता है। संसार का कोई भी पदार्थ उससे प्रच्छन्न नहीं रहता। ऐसे महापुरुष को प्रस्तुत सूत्र में वेदवित् एवं अकर्मा कहा गया है। . इस तरह संसार परिभ्रमण के कारणों का उन्मूलन करने से उसे किस फल की प्राप्ति होती है, इस विषय का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 6 // // 184 // 1-5-6-6 अच्चेइ जाईमरणस्स वट्टमगं विक्खायरए, सव्वे सरा नियटुंति, तक्का जत्थ न विज्जइ, मई तत्थ न गाहिया, ओए, अप्पइट्ठाणस्स खेयण्णे, से न दीहे, न हस्से, न वट्टे, न तंसे, न चउरंसे, न परिमंडले, न किण्हे, न नीले, न लोहिए, न हालिद्दे, न सुक्किल्ले, न सुरभिगंधे, न दुरभिगंधे, न तित्ते, न कडुए, न कसाए, न अंबिले, न महुरे, न कक्खडे, न मउए, न गरुए, न लहुए, न उण्हे, न निद्धे, न लुक्खे, न काऊ, न रुहे, न संगे, न इत्थी, न पुरिसे, न अण्णहा परिण्णे सण्णे उवमा न विज्जइ, अरूवी सत्ता, अपयस्स पयं नत्थि // 184 // II संस्कृत-छाया : अत्येति जाति-मरणस्य मार्ग, व्याख्यातरतः, सर्वे स्वराः निवर्तन्ते, तर्कः यत्र न विद्यते, मतिः तत्र न ग्राहिका, ओजः, अप्रतिष्ठानस्य खेदज्ञः, सः न दीर्घः, न ह्रस्वः, न वृत्तः, न त्र्यम्रः, न चतुरस्रः, न परिमण्डलः, न कृष्णः, न नीलः, न लोहितः, न हारिद्रः, न शुक्लः, न सुरभिगन्धः, न दुरभिगन्धः, न तिक्तः, न कटुकः, न कषायः, न अम्लः, न मधुरः, न कर्कशः, न मृदुः, न गुरुः, न लघुः, न शीतः, न उष्णः, न स्निग्धः, न रुक्षः, न कायवान्, न रुहः, न सङ्गः, न स्त्री:, न पुरुषः, न अन्यथा, परिज्ञः, सज्ज्ञः, उपमा न विद्यते, अरूपिणी सत्ता, अपदस्य पदं नाऽस्ति // 184 //