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________________ 468 // 1-5-6-5 (183) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है। भावस्रोत को दूर करने के लिए ही दीक्षा ग्रहण करता है अर्थात् प्रव्रज्या के द्वारा भाव स्रोत का निरोध करता है। यह महापुरुष चार प्रकार के घातिकर्मों का क्षय करके सांसारिक पदार्थों को जानता और देखता है अर्थात् विशेष रूप से जानता और सामान्य रूप से देखता है। इस लोकवर्ति जीवों के गमनागमन को देखकर और उनके मूल कारणों को जानकर, उनका निराकरण करता है। IV टीका-अनुवाद : __राग, द्वेष, कषाय एवं विषयों का आवर्त्त, अथवा कर्मबंध के आवर्त तथा भाव-आवर्त्त को देखकर के वेद याने आगम सूत्र को जाननेवाला साधु विषय-कषाय स्वरूप भावावर्त से विरमण करें, अर्थात् आश्रवों के द्वारों का रुंधन (निरोध) करें... पाठांतर... वेद याने आगमसूत्रों को जाननेवाला साधु आश्रवों के द्वार के निरोध से कर्मो का विवेक याने अभाव करें.... तथा आश्रवों के द्वार को दूर करने के लिये प्रव्रज्या ग्रहण करके प्रवृत्त हुआ यह साधु महापुरुष अकर्मा होता है... अर्थात् घातिकर्मो के अभाव से केवलज्ञानी होकर सभी पदार्थों के सभी भावों को जानतें एवं देखते हैं... तथा केवलज्ञानी को सभी लब्धियां भी उत्पन्न होती हैं... केवलज्ञानी प्रथम जानते हैं, एवं बाद में देखतें हैं... इसी क्रम से हि उनका उपयोग प्रकट होता है... अब कहतें हैं कि- उत्पन्न दिव्य ज्ञानवाले, तथा त्रैलोक्य ललाम’ चूडामणि, सुरासुरनरेन्द्रों से पूजित, तथा संसार समुद्र के पार रहे हुए एवं जगत के सभी ज्ञेय पदार्थों को सर्व प्रकार से जाननेवाले वे केवलज्ञानी परमात्मा सुर असुर एवं मनुष्यों के द्वारा की हुइ पूजा को प्राप्त करके तथा वह पूजा उपाधिवाली, कुत्रिम, अनित्य और असार है; ऐसा पर्यालोचन करके तथा इंद्रियों के विकारों पे विजय पाने से प्राप्त सहज सुख के अनुभव से अब उन्हें विषय भोग की स्पृहा न होनेसे वे सोपाधिक पूजा की आकांक्षा नहि रखतें... तथा इस मनुष्यलोक में रहा हुआ वह केवलज्ञानी प्राणीओं की आगति और गति तथा संसार में भ्रमण और उसका कारण ज्ञ परिज्ञा से जानकर एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा से उन कारणों का निराकरण (त्याग) करतें हैं... संसार में परिभ्रमण के कारणों का निराकरण करने से आत्मा को जो जो गुण प्राप्त होतें हैं; वह सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहेंगे... सूत्रसार : आत्मा में स्थित अनन्त चतुष्टय-१-अनन्त ज्ञान, २-अनन्त दर्शन, ३-अनन्त चारित्र
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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