________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-5-6-6 (184) // 473 - है। यह.अक्षय सुख वाला है, समस्त कर्मों से रहित है, अनन्त ज्ञान, दर्शन एवं शक्ति संपन्न है। __ उसके स्वरूप का वर्णन करने की शक्ति किसी शब्द में नहीं है। उसके वर्णन करने में समस्त स्वर अपना सामर्थ्य खो देते हैं। क्योंकि- शब्दों के द्वारा उसी वस्तु का वर्णन किया जा सकता है, जिसका कोई रूप हो, रंग हो या उसमें अन्य भौतिक आकार-प्रकार हो। परन्तु शुद्ध आत्मा इन सभी पौद्गालिक गुणों से रहित है। सिद्धात्मा में वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि का सर्वथा अभाव है। वहां आत्मा के साथ किसी पौद्गलिक पदार्थ का संबन्ध नहीं है। अत: शब्दों के द्वारा मोक्ष के स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता। वेदों में 'नेति नेति' शब्द द्वारा इसी बात को व्यक्त किया गया है कि- परमात्मा के स्वरूप का शब्दों से विवेचन नहीं किया जा सकता। आत्मा-परमात्मा को मानने वाले प्रायः सभी भारतीय दर्शन इस बात में एकमत हैं। शब्द की अपेक्षा तर्क एवं बुद्धि का स्थान महत्त्वपूर्ण माना गया है और यह मुक्तात्मा उससे भी सूक्ष्म है। कवि एवं तार्किक तर्क एवं बुद्धि की कल्पना से बहुत ऊंची उड़ाने भरने में सफल होते हैं। परन्तु मुक्त आत्मा के स्वरूप का वर्णन करने में तर्क एवं बुद्धि भी असमर्थ है। क्योंकि- मनन-चिन्तन एवं तर्क-वितर्क आदि पदार्थों के आधार पर होता है और मुक्ति समस्त मानसिक विकल्पों से रहित है; अतः वहां तर्क एवं बुद्धि की भी पहुंच नहीं है। . वैदिक ग्रन्थों में भी ब्रह्म या परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है किजो अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय, तथा रस हीन, नित्य और गंध रहित है; जो अनादिअनन्त; हैं। यह तत्त्व से भी पर और ध्रुव (निश्चल) है, उस तत्त्व को जानकर पुरुष मृत्यु के मुख से छूट जाता है। मुण्डकोपनिषद् में लिखा है कि- मुक्तात्मा अदृश्य, अग्राह्य, अगोत्र, अवर्ण और चक्षु श्रोत्रादि रहित, अपाणिपाद, नित्य, विभु, सर्वगत, अत्यन्त सूक्ष्म और अव्यय है, उसे विवेकी पुरुष देखते हैं। तैत्तीरीय उपनिषद् में कहा है कि-जहां वचन की मति नहीं है और मन से भी अप्राप्य है, ऐसे आनन्द स्वरूप ब्रह्म की शब्दों के द्वारा व्याख्या नहीं की जा सकती। इसी तरह बृहदारण्यक में भी, ब्रह्म को अस्थूल, असूक्ष्म, अदीर्घ, अह्रस्व आदि माना है। निर्वाण के सम्बन्ध में बौद्ध ग्रन्थों में भी ऐसे ही विचार मिलते हैं। इस तरह इस विषय में प्राय: सभी मत-मतांतरों के विचारों में एकरूपता है। मोक्ष में आत्मा सर्व कर्म मल से रहित, विशुद्ध एवं एक है। उसके साथ न कर्म है और न कर्म जन्य उपाधि है। वह सभी दोषों से रहित है और दुनियां के समस्त पदार्थों का ज्ञाता एवं दृष्टा है। निष्कर्ष यह निकला कि- मोक्ष में स्थित आत्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न परिमंडल संस्थान वाला है, न कृष्ण, नील, पीत, रक्त एवं श्वेत वर्ण वाला है। न दुर्गन्ध; एवं सुगन्ध वाला है, न तीक्ष्ण, कटुक, खट्टा,