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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-5-6- 3 (181) 465 करे, और इस मनुष्यलोक में, आराम-संयम को स्वीकार करके जितेन्द्रिय होकर विचरे, तथा मोक्षार्थी कर्म विदारण में समर्थ सदा सर्वज्ञ-प्रणीत आचार द्वारा मोक्षमार्ग में पराक्रम करे। IV टीका-अनुवाद : निर्देश याने तीर्थंकर प्रभु का उपदेश... मेधावी साधु उन उपदेश का अतिक्रम न करें अर्थात् उपदेश की मर्यादा में हि रहें... तथा कुमतवालों के वचन एवं सर्वज्ञ प्रभु के वचन का अच्छी तरह से याने द्रव्य-क्षेत्र-काल एवं भाव स्वरूप से सभी प्रकार से हेय-ज्ञेय एवं उपादेय के विभाग से पूर्वोक्त सन्मति, परव्याकरण एवं अन्य से सुनकर... इत्यादि तीनों प्रकार से पर्यालोचन करके आचार्य के निर्देश में रहनेवाला मुमुक्षु-साधु सदा-सर्वदा कुतीर्थिकों के प्रवाद का निराकरण करें... अर्थात् स्वमत एवं परमत को अच्छी प्रकार से जान-समझकर स्वमत में स्थिर होकर परमत का निराकरण करें... तथा इस मनुष्यलोक में परमार्थ दृष्टि से आत्यंतिक एवं ऐकान्तिक आराम = रमण याने रति स्वरूप संयम को आसेवन परिज्ञा से जानकर मुमुक्षु-साधु सदा-सर्वदा संयत एवं गुप्त होकर संयमानुष्ठान में विचरण करें... वह साधु निष्ठितार्थी याने मोक्षार्थी है... वीर याने कर्म को विनाश करने में समर्थ है... अत: वह साधु सर्वज्ञ प्रभु के कहे गये आगम के द्वारा निर्दिष्ट पंचाचार-आचार आदि के द्वारा सदा कर्मशत्रुओं के प्रति पराक्रम करें... अर्थात् मोक्षमार्ग में आगे हि आगे बढता रहे... “इति” शब्द यहां अधिकार की समाप्ति का सूचक है तथा "ब्रवीमि” पूर्ववत्... अब कहतें हैं कि- हे गुरुजी ! आप यह उपदेश क्यों बार बार देते हो ? इस प्रश्न . का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : - हम यह देख चुके हैं कि- आत्म विकास का मूल सम्यक्त्व-श्रद्धा है। जब साधु को सर्वज्ञ प्रणीत आगम पर श्रद्धा-निष्ठा होती है, तब वह उस उपदेश को जीवन में स्वीकार कर सकता है। वह साधु किसी भी स्थिति में आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता और श्रुतज्ञान के द्वारा हेय-उपादेय के स्वरूप को जानकर हेय पदार्थों का त्याग करके उपादेय को स्वीकार करता है। इस प्रकार वह आरम्भ-समारम्भ से मुक्त होकर संयम-साधना में संलीन रहता है। संयम-साधना में वही संलग्न होता है, जिसके मन में कर्मों से सर्वथा मुक्त होने की अभिलाषा है। मोक्षार्थी व्यक्ति इस बात को भली-भांति जानता हैं कि- आरम्भ-समारम्भ, विषय-भोग में आसक्ति आदि संसार परिभ्रमण के कारण है और इनमें संलग्न व्यक्ति का मन सदा अशान्त रहता है। इसलिए पूर्ण समाधि एवं शान्ति का इच्छुक व्यक्ति ही पंचाचारात्मक
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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