________________ 466 // 1-5-6-4 (182) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संयम का परिपालन कर सकता है। इस उपदेश की पुनः पुनः आवश्यकता का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... . I सूत्र // 4 // // 182 // 1-5-6-4 उड्ढं सोया अहे सोया, तिरियं सोया वियाहिया। एए सोया विअक्खाया, जेहिं संगति पासह // 182 // II संस्कृत-छाया : ऊर्ध्वं श्रोतांसि, अधः श्रोतांसि, तिर्यक् श्रोतांसि व्याहितानि एतानि श्रोतांसि व्याख्यातानि, यैः सङ्गं इति पश्यत // 182 // III सूत्रार्थ : ऊंची दिशा में, नीची दिशा में और तिर्यक् दिशा में कर्मस्रोत-विषयवासना रूप कहे गए हैं। इन वर्णन किये गए कर्मस्रोतों को- हे शिष्यो ! तुम देखो ! इन कर्मस्रोतों के संग से प्राणी पापकर्मों में प्रवृत्त हो रहे हैं। IV टीका-अनुवाद : स्रोत याने कर्मो के आश्रवों के द्वार... जन्म जन्मांतर के अभ्यास से विषय भोग के अनुबंधवाले वे आश्रव द्वार... ऊर्ध्व स्रोत याने वैमानिक देवलोक एवं देवीओं के विषय सुखोपभोग की अभिलाषा अथवा वैमानिक देव-सुख का नियाणा करना.... अधः स्रोत याने भवनपतिदेवों के भोगोपभोगों की अभिलाषा... तथा तिर्यक् स्रोत याने व्यंतरदेव, मनुष्य एवं तिर्यंचों के विषय भोग की इच्छा... अथवा प्रज्ञापक की अपेक्षा से ऊर्ध्व स्रोत याने पर्वत के शिखर से नीचे तलहटी में जल के प्रवाह का गिरना... इत्यादि... तथा अधः स्रोत याने नरक भूमी में नदी के किनारे की गुफाएं, निवासस्थान... इत्यादि तथा तिर्यग्-स्रोत याने आराम सभा, मकान-घर, इत्यादि कि- जो मनुष्यों के विविध प्रकार के विषयोपभोग के स्थान कहे हैं... वे सभी विषयोपभोग के स्थान प्रयोग एवं विस्रसा के द्वारा बने हुए हैं अथवा अपने कर्म परिणामों से बने हुए हैं... इन तीन प्रकार के तथा अन्य भी जो कोइ प्रकार से उत्पन्न होनेवाले पापाचरण के हेतुभूत आश्रव द्वारों से प्राणीओं को होनेवाले संग याने आसक्ति अथवा कर्मबंध को देखीयेगा... कर्मबंध के कारणभूत ऐसे इन आश्रवद्वारों को जान-समझकर उन आश्रव-द्वारों से बचने के