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________________ 464 // 1-5-6 - 3 (181) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है। इस बात को जानने वाला एवं उस पर श्रद्धा-निष्ठा रखने वाला व्यक्ति सर्वज्ञ प्रभु की आज्ञा का परिपालन कर सकता है। क्योंकि- सर्वज्ञ के वचनों में परस्पर विरोध नहीं होता और वे जिनवचन प्राणी-जगत के हित को लेकर कहे गए हैं। इस लिए मुमुक्षु-साधु को सर्वज्ञ के अतिरिक्त किसी के वचनों पर श्रद्धा नहीं होती। साधु जिनवचनों के आधार पर अन्य मत की परीक्षा करता है और हेय-उपादेय की पहचान करके हेय का त्याग करता है और उपादेय को स्वीकार करता है। ___ जैसे कि- जैनागमों में शब्द पौद्गलिक माना है किंतु नैयायिक-वैशेषिक आदि शब्द को आकाश का गुण मानते हैं। परन्तु, यह बात सत्य नहीं है। क्योंकि- शब्द रूपवान है और आकाश रूप रहित है। रूप रहित का गुण रूप युक्त पदार्थ हो नहीं सकता। इसलिए शब्द भी रूपवान होने के कारण आकाश का गुण नहीं हो सकता। और आज वैज्ञानिक आविष्कारों ने शब्द की पौद्गलिकता को स्पष्ट कर दिया है। इससे स्पष्ट है कि- सर्वज्ञ के वचनों में असत्यता नहीं होती। इस प्रकार मुमुक्षु-साधु पदार्थों का यथार्थ ज्ञान करके सर्वज्ञ भगवान की आज्ञा के अनुरूप संयम का पालन करते हैं। पदार्थों का ज्ञान तीन प्रकार से होता है- १-सन्मति सेज्ञानावरणीय कर्म के क्षय एवं क्षयोपशम से सन्मति प्रस्फुटित होती है और उससे पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होता है। २-तीर्थंकर के उपदेश से और ३-आचार्य-स्थविर आदि के उपदेश से भी पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का बोध होता है। ___ पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का बोध हो जाने के पश्चात् साधु को क्या करना चाहिए; इस संबन्ध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 181 // 1-5-6-3 निद्देसं नाइवढेजा मेहावी सुपडिलेहिया सव्वओ सव्वप्पणा सम्मं समभिण्णाय इह आरामो परिव्वए निट्टियट्ठी वीरे आगमेण सया परक्कमेजासि तिबेमि // 181 // II संस्कृत-छाया : निर्देशं नाऽतिवर्तेत, मेधावी सुप्रत्युपेक्ष्य सर्वतः सर्वात्मना सम्यग् समभिज्ञाय इह आरामः परिव्रजेत् निष्ठितार्थी वीरः आगमेन सदा पराक्रमेथाः इति ब्रवीमि // 181 // III सूत्रार्थ : बुद्धिमान साधु भगवदुपदेश का उल्लंघन न करे, एवं सम्यक् तथा सर्व प्रकार से सामान्य और विशेष रूप से पदार्थों के स्वरूप को जानकर परवाद-मिथ्यावाद का निराकरण
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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