________________ 460 // 1-5-6-2(180) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन त्याग करके सदा तीर्थंकर भगवान एवं उनके शासन के संचालक आचार्य की आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए। साधु को सदा ज्ञान साधना एवं संयम पालन में संलग्न करना चाहिए और प्रत्येक कार्य आचार्य की आज्ञा लेकर ही करना चाहिए। इस तरह के आचरण से साधक के जीवन में किस गुण का विकास होता है, इस सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 180 // 1-5-6-2 ___ अभिभूय अदक्खू अनभिभूए पभू, निरालंबणयाए जे महं अबहिमणे पवाएण पवायं जाणिजा, सह संमइयाए परवागरणेणं अण्णेसिं वा अंतिए सुच्चा // 180 // II संस्कृत-छाया : अभिभूय अद्राक्षीत्, अनभिभूतः प्रभुः निरालम्बनताया: य: महान् अबहिर्मना: प्रवादेन प्रवादं जानीयात्, सह सन्मत्या परव्याकरणेन अन्येषां वा अन्तिके श्रुत्वा // 180 // III सूत्रार्थ : जो साधक परीषहों पर विजय प्राप्त करके तत्त्व का दृष्टा होता है और माता-पिता एवं परिजनों के शुभाशीर्वाद से संयम पालन में समर्थ होता है, वह भगवान की आज्ञा में सदा-सर्वदा सावधान होता है... आचार्य परंपरा से सर्वज्ञ के सिद्धान्त को जानकर और सर्वज्ञ के उपदेश से अन्य मत की परीक्षा करके, सन्मति-शुद्ध एवं निष्पक्ष बुद्धि से, तीर्थंकरों के उपदेश से या आचार्य के सान्निध्य से पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानते हैं। IV टीका-अनुवाद : परीषह एवं उपसर्गों को जितकर अथवा चार घातिकर्मों को जितकर तत्त्व को देखें... क्योंकि- जो मुमुक्षु अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्गों से अथवा परतीर्थिक याने कुमतवादीओं से अभिभूत नहि है; वह हि प्रभु याने समर्थ है... “इस संसार में तीर्थंकर परमात्मा के वचन के सिवा और कोइ माता-पिता-पत्नी आदि नरकादि में जाते हुए आत्मा को आलंबन नहि होतें हैं" ऐसी भावना से वह मुमुक्षु-साधु परीषह एवं उपसर्गों को जितने में समर्थ होता हैं और किसी अन्य कुमतवादीओंसे से भी पराभूत नहि होता है... यह बात तीर्थंकर परमात्मा / और सुधर्मस्वामी आदि आचार्य अपने अंतेवासीओं (शिष्यों) को कहते हैं... तथा और भी यह कहतें हैं कि- मोक्ष को हि लक्ष्य में रखनेवाला वह महान पुरुष लघुकर्मी है और मुझे लगता है कि- वह बहिरात्मभाववाला नहि है; किंतु सर्वज्ञ प्रभुजी के उपदेश अनुसार