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________________ श्री राजेन्द्र सबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 卐१-५-६-१(१७९) 459 अनाज्ञा याने अनुपदेश अर्थात् अपने मन से हि कीया हुआ जो आचरण वह अनाचार है... उस अनाज्ञा से या उस अनाज्ञा में रहे हुए स्वाभिमान स्वरूप ग्रह से ग्रस्त कितनेक मुमुक्षु साधु इंद्रियों के विकारों में भ्रांत होकर दुर्गति में जाने का उपस्थान याने धर्म के आचरण का मात्र आभास (दिखावा) करतें हैं... वे कहते हैं कि- "हम भी प्रव्रजित है" इत्यादि... किंतु वे सद् एवं असद् धर्म के विशेष विवेक से विकल (रहित) होने के कारण से सावद्य = पापाचरण के आरंभो में प्रवृत्त होते हैं... - तथा कितनेक मुमुक्षु कुमार्ग से वासित अंत:करणवाले नहि है, किंतु आलस, निंदा एवं अभिमान आदि से कुंठित बुद्धीवाले, वे अज्ञ-साधु आज्ञा याने तीर्थंकरों के उपदेशानुसार सदाचार में उद्यम नहिं करते... वे निरुपस्थान याने सर्वज्ञ प्रणीत सदाचार स्वरूप अनुष्ठान से विकल हैं..: इस प्रकार कुमार्ग के आचरणवाले एवं सन्मार्ग में खेद पानेवाले यह दोनों भी प्रकार- हे विनेय ! हे शिष्य ! गुरुजी के विनय में तत्पर ऐसे तुम्हारे लिये दुर्गति के हेतु न बनो ! ऐसा कहकर पंचम गणधर श्री सुधर्मस्वामीजी कहते हैं कि- यह सब कुछ मैं मेरे मनकल्पना मात्र से हि नहि कह रहा हूं किंतु कुशल तीर्थंकरों का यह अभिप्राय याने उपदेश है... अर्थात् यह जो मैं कहता हूं, वह कुशल ऐसे तीर्थंकरों का दर्शन याने मत है... प्रभुजी कहतें हैं कि- कमार्ग का त्याग करके हमेशा आचार्यजी के अंतेवासी याने शिष्य बनकर रहें. तथा उन आचार्यजी की दृष्टि याने मार्गदर्शनानुसार आचरण करें... क्योंकि- वह दृष्टि सर्वज्ञ तीर्थंकरों से कहे गये आगम की दृष्टि है... तथा उन आचार्य या तीर्थंकरों से प्रदर्शित जो मुक्ति, उस मुक्ति के अनुसार अनुष्ठान करें... तथा सभी कार्यों में आचार्यजी को हि आगे करें अर्थात् उनकी अनुमती से हि क्रियानुष्ठान करें... तथा उनके ज्ञान में उपयुक्त रहें और सदा गुरुकुल में हि निवास करें... ___ ऐसे गुरुकुलवासी मुमुक्षु को प्राप्त होनेवाले गुणों का कथन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... v सूत्रसार : आगम में विनय को धर्म का मूल कहा है। विनय के अभाव में जीवन में धर्म का उदय नहीं हो सकता और विनय की आराधना आज्ञा में है। इसलिए आगम में कहा गया है कि-आज्ञा को पालन करने में धर्म है। यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है कि- जो व्यक्ति आगम एवं आचार्य की आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करता है। वह आत्मा का विकास करते हुए एक दिन अपने साध्य को सिद्ध कर लेता है। और जो व्यक्ति वीतराग प्रभु की आज्ञा के विपरीत मार्ग पर चलता है, या आज्ञा के अनुसार आचरण करने में आलस्य करता है, वह व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता है। अतः विनीत शिष्य को उक्त दोनों दोषों का
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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