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________________ 458 1 -5-6-1(179) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 5 उद्देशक - 6 म कुमार्गत्यागः // पांचवा उद्देशक कहा, अब छठे उद्देशक का प्रारंभ करते हैं... और इनका परस्पर यह अभिसंबंध है... जैसे कि- पांचवे उद्देशक में कहा था कि- आचार्यजी ह्रद (सरोवर) के समान हैं... अब एसे स्वरूपवाले आचार्यजी के संपर्क से कुमार्ग का परित्याग और राग-द्वेष की हानि अवश्य हो; अतः इस बात के संबंध से आये हुए इस छठे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 179 // 1-5-6-1 __ अणाणाए एगे सोवट्ठाणा आणाए एगे निरुवट्ठाणा, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दसणं, तद्दिठ्ठीए तम्मुत्तीए तप्पुरकारे तस्सण्णी तण्णिवेसणे // 179 // II संस्कृत-छाया : अनाज्ञया एके सोपस्थानाः आज्ञायां एके निरुपस्थानाः, एतत् तव मा भवतु, एतत् कुशलस्य दर्शनम्, तदृष्ट्या तन्मुक्त्या, तत्पुरस्कारः तत्सझी तन्निवेशनः // 179 // II सूत्रार्थ : ___ कुछ लोग भगवान की आज्ञा के विपरीत कुमार्ग पर चलते हैं। कुछ साधक भगवान की आज्ञा का परिपालन करने में आलस्य करते हैं। परन्तु जिनेश्वर भगवान का आदेश हैं किसाधु के जीवन में ये दोनों दोष अर्थात् कुमार्ग में पुरुषार्थ एवं सन्मार्ग में आलस्य न होना चाहिए। विनीत शिष्य को इन दोषों का त्याग करके गुरु की दृष्टि-आज्ञा से निर्लोभवृत्ति के द्वारा पंचाचारात्मक संयम का पालन करना चाहिए। आचार्य एवं गुरु की निश्रा में सदा ज्ञान साधना में संलग्न रहना चाहिए। और प्रत्येक कार्य उनकी आज्ञा से करना चाहिए। शिष्य को सदा आचार्य एवं गुरु के सान्निध्य में रहना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : - इस विश्व में जो मनुष्य तीर्थंकर या गणधर आदि के उपदेश को स्वीकारता है; उसे विनेय (शिष्य) कहते हैं... अथवा सभी प्राणी में सभी भावों की संभावना हो शकती है; अतः कोइ भी मनुष्य के लिये यह सामान्य संकेत है...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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