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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-5-6-2(180) 461 अंतरात्मभाववाला एवं सदाचारी हि है... तथा स्थविर आचार्यों की परंपरा से आये हुए उपदेश स्वरूप प्रवाह से सर्वज्ञ प्रभुजी की आज्ञा को अच्छी तरह से जानता है... अथवा अणिमादि आठ प्रकार के ऐश्वर्य को देखने पर भी तीर्थंकर परमात्मा के वचनों से बाहर मन को नहि होने देते... किंतु कुतीर्थिकों को इंद्रजाल के समान मानकर उनके अनुष्ठान एवं उनके वचनों का पर्यालोचन करतें हैं... अर्थात् जिनेश्वरों के वचनों के द्वारा कुतीथिकों ' के वचनों की परीक्षा करतें हैं... वह इस प्रकार - वैशेषिक मतवाले कहते हैं कि- ईश्वर के सिवा अन्य कोइ भी जंतु अपने सुख एवं दुःख को करने में समर्थ नहि हैं, किंतु ईश्वर की प्रेरणा से हि जीव-जंतु स्वर्ग में या नरक में जाते हैं... इत्यादि बातों को मुमुक्षु-साधु जिनमत के वचनों से विचारें... जैसे कि- बादल (मेघ) इंद्रधनुष आदि विस्रसा परिणाम से हि अपने स्वरूप को प्राप्त करतें हैं- यहां ईश्वर कर्ता है; ऐसी परिकल्पना करना व्यर्थ हि है... असत्य हि है... तथा घट की उत्पत्ति में भी दंड, चक्र, जल एवं कुंभार और वस्त्र की उत्पत्ति में तुरी, वेम, शलाका और कुविंद (वणकर) आदि के. व्यापार (क्रिया) हि कारण है... जब कि- ईश्वर ऐसे व्यापार (क्रिया) वाले नहिं है; तो भी घट एवं पट आदि की उत्पत्ति में ईश्वर को कारण मानने की कल्पना यदि करतें हैं; तब रासभ (गधे) आदि में भी वह कारणता क्यों न हो ? अर्थात् माननी हि चाहिये... किंतु वैसा तो कोइ मानता नहि है... तथा शरीर एवं इंद्रियों की विचित्रता में कर्म के सिवा और कोई कारण नहि है... यदि यहां कर्म को कारण नहि मानतें तब समान वातावरण एवं समान मात-पितादि कारण होते हुए भी दो पुत्रों के बीच जो जो विचित्र अंतर पाया जाता है वहां कुछ न कुछ निमित्त (कारण) तो होना हि चाहिये... अब ईश्वर को कर्ता मानने के बाद भी आपको अदृष्ट (भाग्य) को तो मानना हि पडेगा... क्योंकि- अदृष्ट के सिवा, एक को सुख एवं अन्य को दुःख तथा सुभग एवं दुर्भग आदि जगत् की विचित्रता में और कौन कारण हो शकता हैं ? इत्यादि... तथा सांख्य मतवाले ऐसा कहते हैं कि- सत्त्व, रजस् एवं तमस की साम्य अवस्था हि प्रकृति है... तथा प्रकृति से महान् और महान् से अहंकार... और अहंकार से ग्यारह इंद्रियां पांच तन्मात्रा और उन तन्मात्रा से पांच भूत तथा बुद्धि से अध्यवसित अर्थ ऐसा पुरुष... किंतु वह पुरुष अकर्ता और निर्गुण है... जब कि- प्रकृति कार्य करती है, पुरुष उपयोग करता है और उसके बाद पुरुष की कैवल्य अवस्था में “मैं प्रसन्न हूं" ऐसा कहकर प्रकृति निवृत्त होती (लौटती) है... इत्यादि सांख्यों के वचन युक्ति से सर्वथा विकल हैं... वह इस प्रकार- प्रकृति तो अचेतन है; अत: आत्मा के उपकार के लिये क्रिया में प्रवृत्त कैसे हो ? अथवा क्या कहिं देखा है कि- आत्मोपकार के लिये प्रकृति ने प्रवृत्ति की हो ? यदि प्रकृति अचेतना है; अत:
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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