________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 5 - 5 - 4 (976) 449 वे.कुमतवाले कहते हैं कि- आत्मा का न तो कभी जन्म होता है और न तो कभी मरण होता है, और न तो एक जन्म से अन्य जन्म में उत्पन्न होता है, तथा आत्मा का न तो कोइ शस्त्र से छेदन होता है और न तो अग्नि से जलता है... तथा न तो जल से भीगता है और न तो पवन से सुकता है... इस प्रकार यह आत्मा अछेद्य अभेद्य और अविकारी है, तथा नित्य शाश्वत स्थिर अचल एवं सनातन है... .. इत्यादि कल्पित विचारों से जीव के वध आदि में प्रवृत्त होनेवाले कुमतवालों को निषेध करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... V सूत्रसार : जब आत्मा अनन्तानुबंधीकषाय और दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियोंमिथ्यात्वमोहनीय, सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय का क्षय या क्षयोपशम करता है, तब साधक के जीवन में श्रद्धा की, सम्यक्त्व की ज्योति जगती है। उसे यथार्थ तत्त्वों पर श्रद्धाविश्वास होता है। किंतु जब तक अनन्तानुबन्धी कषाय एवं दर्शनमोह का उदय रहता है, तब तक सम्यक्श्रद्धा आवृत्त रहती है। जैसे आंखों पर मोतिया बिन्दु आवरण आ जाने से दृष्टि मन्द पड़ जाती है। उसी तरह दर्शनमोह कर्म के उदय से आत्मा के स्वगुणों पर पर्दा-सा पड़ जाता है और उस कर्म आवरण के कारण आत्मा पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को नहीं जान पाता। इससे स्पष्ट हो गया कि- दुनियां में दो तरह की दृष्टि हैं, एक दर्शनमोह के आवरण से अनावृत्त और दूसरी है; आवृत्त। इन्हें आगम में सम्यग् एवं मिथ्या दर्शन या दृष्टि कहते . संसार की चारों गतियों में दोनों दृष्टि के जीव पाए जाते हैं। परन्तु आत्मा का विकास एवं अभ्युदंय सम्यग्दृष्टि से ही होता है। इसलिए जीव में सम्यक्त्व को अधिक महत्त्व दिया है। सम्यक्त्व भी क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन तरह का होता है। क्षायिक सम्यक्त्व जीवन में आने के बाद सदा बना रहता है, परन्तु शेष दो तरह का सम्यक्त्व सदा एक-सा नहीं रहता है। इसी बात को प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है। कुछ मुमुक्षु-व्यक्ति जिस निष्ठा के साथ दीक्षा लेते हैं, वही श्रद्धा-निष्ठा उनकी अन्त तक बनी रहती है। निष्ठा में तेजस्विता आती रहती है, तथा कुछ व्यक्ति दीक्षा समय निर्मल सम्यक्त्व वाले होते हैं, परन्तु दीक्षित होने के बाद दर्शन मोह के उदय से श्रद्धा से गिर जाते है। कुछ साधक दीक्षित होते समय संशय शील होते हैं, परन्तु बाद में उनका सम्यक्त्व निर्मल हो जाता है। और कुछ साधक दीक्षा ग्रहण करते समय एवं बाद में संशयशील या सम्यक्त्व * रहित बने रहते हैं। इसी तरह अन्य भंगों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए।