________________ 448 // 1-5-5-4 (176) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को भी उपदेश देने के किये समर्थ होता है... कहा भी है कि- आगम से परिकर्मित- मतिवाला होने से यथाव्यवस्थित पदार्थ के स्वभाव को देखने में निपुण वह मुमुक्षु साधु सम्यग् एवं असम्यग् की उत्प्रेक्षा याने पर्यालोचन करता हुआ, प्रसंग आने पर उत्प्रेक्षा नहि करनेवाले और गड्डरिका यूथप्रवाह में प्रवृत्त, तथा गतानुगतिकन्याय को अनुसरनेवाले एवं शंका के कारण से प्रव्रज्या का त्याग करनेवाले अन्य मुमुक्षु-साधु को कहता है कि- आप उत्प्रेक्षा करो ! चिंतन करो | अच्छे (सम्यग) भाव से माध्यस्थ्य भाव का अवलंबन लेकर आंखे बंध करके सोचो कि- अरिहंत परमात्माने कहे हुए जीवादि तत्त्व युक्तियुक्त घटित होते हैं या नहि.... अथवा संयम को उत्कृष्ट भाव से देखनेवाले एवं संयम में उद्यम करनेवाले मुमुक्षु, उत्प्रेक्षा नहि करनेवाले अन्य मुमुक्षु को कहे कि- सम्यग् भाव को प्राप्त करके संयम में उद्यम करो ! यदि आप संयम में सम्यग् भाव से उद्यम करोगे तो कर्मो की संतति स्वरूप संधि का आप क्षय कर पाओगे... अन्यथा नहि... इसलिये जो मुमुक्षु सम्यग् प्रकार से संयम में उद्यमशील है, निःशंक है, श्रद्धालु है, एवं गुरुकुल या गुरु की आज्ञा में रहा हआ है. उनकी जो शुभ-गति होती है, जो उत्तम-पदवी होती है, उसको आप सम्यग् देखो ! जैसे कि- सकल लोगों से प्रशंसा, ज्ञान एवं दर्शन में स्थिरता, चारित्र में अचलता और श्रुतज्ञान की धारणा... अथवा स्वर्ग एवं अपवर्ग (मोक्ष) इत्यादि गति होती है, उसे देखो ! __ अथवा उत्थित याने संयम में उद्यम करने के बाद अशुभ कर्मो के उदय में संयमशीलता के अभाववाले पासत्था आदि की गति (परिस्थिति) को देखो ! कि- सफल लोग उनका उपहास करतें हैं... तथा जन्मांतर में होनेवाली नरक या तिर्यंच (अधोगति) गति को देखो ! ____ इस प्रकार संयम में उद्यमशील एवं अनुद्यमशील की गति को देखकर मुमुक्षु को चाहि कि- पंचविधाचार (पंचाचार) में हि उद्यम करें... यदि वह मुमुक्षु संयम में उद्यमशील न हो तब उसकी विरूप याने कष्टवाली गति अर्थात् दुर्गति होती है... अतः उन्हें अनुग्रहबुद्धि से सूत्रकार कहते हैं कि- अज्ञानभाववाले एवं सामान्य (मुग्ध) लोगों से आचरण कीये जानेवाले असंयम में हे मुमुक्षु ! आप सकल कल्याणों के पात्र ऐसी अपनी आत्मा को न जोडें... अर्थात् अज्ञानाचरणवाला मत होवें... शाक्य एवं कपिल आदि मतवाले बाल अर्थात् अज्ञानी हैं, अत: उनसे भावित मनुष्य बालभाव का आचरण करते हैं... और कहते हैं कि- आत्मा नित्य है और अमूर्त है, अतः आकाश की तरह आत्मा का वध हो हि नहि शकता... क्योंकि- वृक्ष आदि के छेदन में या जलने में आकाश का न तो छेद होता है, और न तो जलना होता है... इस प्रकार शरीर के छेदन, भेदन आदि विकारों में भी आत्मा तो अविकारी हि रहता है...