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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-5-5-4 (176) 447 ___. 4. आगम से अपरिकर्मित मतिवाले कोइ मुमुक्षु को ऐसा विचार आता है कि- एक समय में हि परमाणु का लोक के अग्रभाग पर्यंत गमन कैसे हो ? इत्यादि मिथ्याभाव की मान्यता में कुहेतु के वितर्क प्रगट होने से प्रव्रज्या अतिशय मिथ्या (असम्यग्) हि होती है... वह इस प्रकार- चौदह राजलोक प्रमाण लोक (विश्व) के आदि और अंतिम प्रदेश में समय के भेद के सिवा एक हि साथ स्पर्श होने में परमाणु भी उतना हि बडा होना चाहिये अथवा लोक के आदि और अंत भाग के प्रदेश में ऐक्य (एकत्त्व) होना चाहिये... किंतु यह सब कुछ ठीक नहि है... ___इस प्रकार अपने कदाग्रह से मूढ वह मुमुक्षु ऐसा तो सोचता हि नहि है कि- विस्रसा परिणाम से परमाणु की शीघ्र गति होने से एक हि समय में असंख्य प्रदेश का उल्लंघन शक्य है... जैसे कि- अंगुलि- द्रव्य एक हि समय में असंख्य आकाश प्रदेशों का उल्लंघन करता हैं... ऐसा भी कैसे हो ? ऐसा यदि प्रश्न है, तब कहतें हैं कि- ऐसा तो प्रत्यक्ष दिखता हि है... तथा सभी प्रमाणों में मुख्य ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाण से हि सिद्ध है; तो फिर अनुमान प्रमाण को क्यों लेना ? वह इस प्रकार- यदि अनेक प्रदेशों में अतिक्रमण एक समय में न हो, तब अंगुलमात्र क्षेत्र को अतिक्रमण करने में असंख्य समय लगने चाहिये... और ऐसा कहने से दृष्टि एवं इष्ट को बाधा पहुंचती है... इत्यादि... ___5. अब इन भंग (विकल्पो) का उपसंहार के द्वारा परमार्थ को प्रगट करते हुए कहतें हैं कि- आगम में कही गइ बातों को सम्यग् (सत्य) माननेवाले एवं शंका, विचिकित्सा आदि से रहित मुमुक्षु को वह वस्तु-पदार्थ प्रयत्न से तथारूप सोचने से सम्यग् हो या असम्यग् हो, तो भी उसको वहां उत्प्रेक्षा = पर्यालोचन से सम्यग् हि हो शकता है... जैसे कि- ईर्यासमिति में उपयोगवाले साधुको यदि प्राणी-वध हो; तो भी वह सम्यग् याने आराधक हि होता है... 6. अब इससे विपरीत बात कहते हैं कि- किसी वस्तु को असम्यग् (मिथ्या) माननेवाले मुमुक्षु को शंका हो, तब बाह्यदृष्टिवाले छद्मस्थ को वह वस्तु सम्यग् हो, या असम्यग् (मिथ्या) किंतु उसको तो असम्यग् (मिथ्या) उत्प्रेक्षा अर्थात् पर्यालोचन से अशुद्ध अध्यवसाय होने के कारण से वह शंका वैसे हि मिथ्या (असम्यग्) हि रहती है... अथवा “समियं ति मन्नमाणस्स" इत्यादि पदों की अन्य प्रकार से व्याख्या करते हैं... शमी का जो भाव वह शमिता उस शमिता को माननेवाले शुभ अध्यवसायवाले मुमुक्षु साधु को प्रव्रज्या के बाद में भी शमिता याने उपशमवालापना होता है और अशमिता को माननेवाले अन्य मुमुक्षु को कषायों के उदय में अशमिता उत्पन्न होती है... इस दिग्दर्शनानुसार अन्य भंग (विकल्पों) में भी सम्यग् योजना स्वयं करें... इस प्रकार सम्यग् एवं असम्यग् इत्यादि का पर्यालोचन करनेवाला मुमुक्षु अन्य जीवों
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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