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________________ 4461-5-5 - 4 (176) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन तीर्थंकरो के वचनों में शंका आदि नहि होतें... // 1 // 2. तथा कोइक मुमुक्षु प्रव्रज्या के समय श्रद्धालुता के कारण से प्रव्रज्या को सम्यक् याने सत्य मानता है, किंतु प्रव्रज्या ग्रहण के बाद श्रुतज्ञान की अनुप्रेक्षा करने में हेतु एवं दृष्टांत ठीक ढंग से ग्रहण न होने के कारण से या अस्पष्टता के कारण से और ज्ञेय पदार्थों की गहनता के कारण से व्याकुल-मति होने पर जब मिथ्यात्व मोहनीय के अंश का उदय होता है; तब वह प्रव्रज्या असम्यग् होती है... वह इस प्रकार- सभी नयसमूह के अभिप्राय से अनंत धर्मवाले पदार्थ-वस्तु की सिद्धि करने में जब मिथ्यात्वमोह का उदय होता है; तब एक नय के अभिप्राय से वस्तु के एक अंश को सिद्ध करने के प्रयत्न करता है... जैसे कि- वस्तु नित्य हो तो अनित्य कैसे ? और यदि अनित्य है; तब नित्य कैसे ? क्योंकि- यह नित्य एवं अनित्य एक दुसरे के परिहार के सिवा एक वस्तु में कैसे रह शकेंगे ? नित्य वह है कि- जो वस्तु अविनाशी हो, अनुत्पन्न हो और स्थिर एक स्वभाववाली हो... तथा अनित्य तो इससे बिलकुल विपरीत याने प्रतिक्षण विनाश होनेवाली हो... इत्यादि विचारणा से वह मिथ्याभाव में उलझ जाता है... किंतु गुरुजी के पास जाकर ऐसी विचारणा नहि करता है कि- अनंत धर्मवाली वस्तु है, और दर्शन सभी नयसमूहवाला अतिशय गहन है, अत: मंदमतिवालों को मात्र श्रद्धा से हि गम्य होता है... हेतु एवं दृष्टांत न मीलने पर क्षोभ नहि करना चाहिये इत्यादि... कहा भी है कि- निश्चित स्वरूपवाले नैगम संग्रह आदि सभी नयों से तथा अनेक प्रकार के गम एवं पर्ययों से सिद्ध ऐसे आगम वचन मात्र श्रद्धा से हि गम्य है... हेतु एवं तर्क यहां नहि होतें... और अन्य मत कोइ एक नय को लेकर चलते हैं और अन्य नय का विरोध करतें हैं; अत: वे सभी कुमत हैं... इत्यादि... क्योंकि- कोइ भी एक हेतु एक नय' के अभिप्राय को लेकर हि चलता है... और वस्तु के एक धर्म को सिद्ध करता है... सभी धर्मो को सिद्ध करनेवाला कोइ हेतु इस विश्व में है हि नहि... 3. तथा और भी विचित्र प्रकार की भावना इस प्रकार है... मिथ्यात्व के उदयवाले कीसी मनुष्य को ऐसा विचार आता है कि- शब्द पौद्गलिक कैसे ? इस प्रकार मिथ्याभाव की मान्यतावाले मुमुक्षु को जब गुरुजी के उपदेश से मिथ्यात्व के अंश का उपशम हो, तब शंका एवं विचिकित्सा आदि के अभाव में प्रव्रज्या सम्यग् होती है... जैसे कि- यदि शब्द पौद्गलिक न हो और आकाश की तरह अमूर्त हो, इस स्थिति में शब्द से होनेवाला अनुग्रह और उपघात श्रोत्रंद्रिय को न हो... किंतु होता तो है... इस प्रकार सम्यग् परिणाम प्राप्त होता है...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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