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________________ 450 // 1-5-5-5 (177) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जीवों के कार्यों के भेद इन्ही दो दृष्टियों के आधार पर किए गए हैं। मिथ्यादृष्टि की क्रिया मिथ्या कहलाती है, तो सम्यग्दृष्टि की क्रिया सम्यक् कहलाती है और इसी सम्यक क्रिया से आत्मा का विकास होता है; सम्यक् भाव से अन्वेषण करने पर पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को देखा एवं जाना जा सकता है। अतः साधक को जीवन में श्रद्धा एवं निष्ठा को बनाए रखना चाहिए और प्रत्येक पदार्थ को सम्यग् दृष्टि से देखना चाहिए। इसके अतिरिक्त साधक को सम्यक्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि के अन्तर को समझकर अपनी श्रद्धा-निष्ठा को शुद्ध बनाए रखना चाहिए। श्रद्धानिष्ठ व्यक्ति के ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र में स्थिरता रहती है और पूर्व बन्धे हुए पाप कर्म का क्षय होता है। अभिनव पाप कर्म का बन्ध नहीं होता, परन्तु श्रद्धाहीन व्यक्ति रात-दिन पाप कर्म का बन्ध करता हैं। अतः साधक को मिथ्यादृष्टि एवं संशय का त्याग करके जिनवचनों पर पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिए। यह नितान्त सत्य है; कि- कर्म का बन्ध आत्मा के शुभाशुभ अध्यवसाय के अनुसार होता है। श्रद्धाहीन व्यक्ति के अध्यवसाय सदा आरंभ-समारंभ में लगे रहते हैं, अत: वह सदा हिंसा आदि दोषों में संलग्न रहता है। अतः अशुभ-अध्यवसायों से वह पाप कर्म का बन्ध करता है; इसी बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 5 // // 177 // 1-5-5-5 .. तुमंसि नाम सच्चेव ज हंतव्वं ति मनसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं अजावेयव्वंति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परियावेयव्वंति मन्नसि, एवं जं परिधित्तव्वंति मन्नसि, जं उद्दवेयव्वंति मन्नसि, अंजु चेय पडिबुद्धजीवी तम्हा न. हंता नवि घायए, अणुसंवेयणमप्पाणेणं जं हंतव्वं नाभिपत्थए // 177 // II संस्कृत-छाया : त्वमसि नाम सः एव यं हन्तव्यमिति मन्यसे, त्वमसि नाम सः एव यं आज्ञापयितव्यमिति मन्यसे, त्वमसि नाम सः एव यं परितापयितव्यमिति मन्यसे, एवं यं परिगृहीतव्यमिति मन्यसे यं अपद्रावयितव्यमिति मन्यसे, ऋजुः च अयं प्रतिबुद्धजीवी, तस्मात् न हन्ता, नाऽपि घातयेत्, अनुसंवेदनं आत्मना यत् हन्तव्यं नाऽभिप्रार्थयेत् // 177 // III सूत्रार्थ : - जिसको तू मारना चाहता है, वह तू ही है ! जिसको तू आदेश देना चाहता है, वह तू ही है, जिसको तू परितापना देना चाहता है, वह तू ही है, जिसको तू पकडना चाहता
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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