________________ 4441 -5-5-4 (176) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन यथार्थता है। इस कारण उनके द्वारा प्ररूपित तत्त्वों पर पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिए। इस तरह जिन-वचनों पर श्रद्धा-निष्ठा रखने वाला सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके आत्म विकास की ओर उन्मुख होता है। संशय का कारण मोह कर्म है और मोह कर्म का उदय साधु एवं श्रावक को भी हो सकता है। अतः साधु के मन में भी श्रुतज्ञान-आगमों के पदार्थों में संशय हो सकता है और संशय से आत्मा का पतन होता है। अतः संशय उत्पन्न होने पर साधु को यह सोच-विचार कर अपने संशय को नष्ट कर देना चाहिए कि- जिनेश्वर भगवान ने जो कुछ कहा है, वह सत्य एवं संशय रहित है, मेरे ज्ञान की न्यूनता के कारण मैं तत्त्व-पदार्थ को समझ नहीं पा रहा हूं। परन्तु इन वचनों में असत्यता नहीं हैं। इस तरह साधु को संशय रहित होकर संयम का परिपालन करना चाहिए। अन्यत्र भी कहा है-“वीतराग भगवान सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी होते है, वे कभी भी मिथ्या भाषण नहीं करते।" अतः उनका प्रवचन सर्वथा सत्य एवं सत्यार्थ का प्रतिपादन करने वाला होता है। "वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या न ब्रुवते क्वचित्। यस्मात्तस्माद् वचस्तेषां, तथ्यं भूतार्थदर्शनम्।” इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 176 // 1-5-5-4 सडिस्स णं समणुण्णस्स संपव्वयमाणस्स समियंति मण्णमाणस्स एगया समिया होइ 1, समियंति मण्णमाणस्स एगया असमिया होइ 2, असमियंति मण्णमाणस्स एगया समिया होइ 3, असमियंति मण्णमाणस्स एगया असमिया होइ 4, समियंति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा समिया होइ उवेहाइ 5, असमियंति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा असमिया होइ उवेहाए 6, उवेहमाणो अणुवेहमाणं बूया - उवेहाहि समियाए, इच्चेवं तत्थ संधी झोसिओ भवइ, से अट्ठियस्स ठियस्स गई समणुपासह, इत्थ वि बालभावे अप्पाणं नो उवदंसिज्जा // 176 // II संस्कृत-छाया : श्रद्धावत: समनुज्ञस्य संप्रव्रजतः सम्यग् इति मन्यमानस्य एकदा सम्यग् एव भवति 1, सम्यग् इति मन्यमानस्य एकदा असम्यग् एव भवति 2, असम्यग् इति मन्यमानस्य एकदा सम्यग् एव भवति 3, असम्यग् इति मन्यमानस्य एकदा असम्यग् एव भवति 4, सम्यग् इति मन्यमानस्य सम्यग् वा असम्यग् वा, सम्यग् एव भवति