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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-5 -5 - 3 (175) 443 प्रश्न- क्या साधु को भी ऐसी विचिकित्सा हो शकती है ? कि- जो आप ऐसा कहते हो? उत्तर- मोह के उदय से प्राणीओं को ऐसा क्या है कि- जो न हो ? तथा आगमसूत्र में भी कहा है किप्रश्न- हे भगवन् ! निग्रंथ श्रमण भी कांक्षा-मोहनीय कर्म का वेदन करतें हैं ? ऐसा क्या हो शकता है ? उत्तर- हे गौतम ! हां, ऐसा होता है... प्रश्न- हे भगवन् ! निग्रंथ श्रमण भी कांक्षा-मोहनीय कर्म का वेदन क्यों करते हैं ? उत्तर- हे गौतम ! विभिन्न ज्ञानांतरो में, चारित्रांतरो में शंकावाले कांक्षावाले, श्रमण साधु विचिकित्सा पाये हुए, भेद प्राप्त कीये हुए एवं कलुषितता को पाये हुए होते हैं... इस प्रकार हे गौतम ! श्रमण-निग्रंथ कांक्षा मोहनीय कर्म का वेदन करतें हैं... यहां श्रद्धा का आलंबन यह है कि- “वह हि सत्य एवं निःशंक है, कि- जो जिनेश्वरो ने कहा है" प्रश्न- हे भगवन् ! निश्चित हि ऐसे निःशंक मन को धारण करनेवाला क्या आज्ञा का आराधक हो शकता हैं ? उत्तर- हे गौतम ! हां, इस प्रकार के निःशंक मन को धारण करनेवाला श्रमण आज्ञा का आराधक होता है... तथा वीतराग सर्वज्ञ प्रभु कभी भी जुठ नहि बोलतें और वीतराग होने के कारण से हि उनका वचन सत्य है, और भूतार्थ याने वस्तु के स्वरूप का दर्शन करवाते है... इत्यादि... - यह विचिकित्सा याने संशय आगम-शास्त्र को नहि सुन पाने के कारण से अपरिकर्मित मतिवाले प्रव्रज्या के इच्छुक मुमुक्षु को भी होती है... अतः यहां भी पूर्व कही गइ बातों का विचार करें... V सूत्रसार : ___ प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि ज्ञानावरण कर्म के उदय से श्रुतज्ञान अधिक न हो; तब भी साधक को जिस प्रवचन पर श्रद्धा रखनी चाहिए। उसे वीतराग द्वारा प्ररूपित वचनों में शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि- सर्वज्ञ प्रभु ने धर्म, अधर्म, आकाश, काल पुद्गल और जीव आदि पदार्थों का अर्थात् जीवाजीव, पुण्य-पाप, आस्त्रव-संवर निर्जरा-बन्ध एवं मोक्ष आदि तत्त्वों का जो वर्णन किया है, वह अपने निर्मल केवल ज्ञान में देखकर किया है। उनके ज्ञान में दुनियां का कोई भी पदार्थ अज्ञात नहीं रह सकता है। अतः उनके प्रवचन में पूर्णत:
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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