________________ 442 1 -5-5-3(175); श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन विश्वास रखता है और उसके अनुसार प्रवृत्ति करता है, उसके मन में चंचलता एवं अस्थिरता नहीं होती है। इससे वह शांति को, पूर्ण सुख को प्राप्त कर लेता है। परन्तु रात-दिन संशय में पड़ा हुआ व्यक्ति शांति को नहीं पा सकता। कहा भी है “संशयात्मा विनश्यति" अर्थात् संशय में निमग्न व्यक्ति अपना विनाश करता है। इसलिए साधु को संशय का त्याग कर निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा रखनी चाहिए। अपनी श्रद्धा को तेजस्वी बनाने के लिए साधक को क्या चिन्तन करना चाहिए ? इस सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 175 // 1-5-5-3 तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं // 175 // II संस्कृत-छाया : तदेव सत्यं निःशङ्क यत् जिनैः प्रवेदितम् // 175 // III सूत्रार्थ : वह हि सत्य एवं निःशंक है कि- जो जिनेश्वरो ने कहा है // 175 // IV टीका-अनुवाद : जहां कहिं स्वसमय याने आगमशास्त्र एवं परसमय याने अन्य मत के शास्त्रों के जाननेवाले आचार्य के अभाव में सूक्ष्म, व्यवहित याने बिच में क्षेत्र या काल का अंतर हो... अथवा दिवार (भीत) हो, और अतींद्रिय याने इंद्रियां जिन्हे ग्रहण नहि कर पातें... ऐसे पदार्थों में दृष्टांत एवं सम्यग् हेतुओं के अभाव से तथा ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से में भी शंका एवं विचिकित्सा आदि से रहित होकर मुमुक्षु-साधु ऐसा चिंतन करें कि- वह हि एक सत्य याने अवितथ है जो परमात्माने कहा है... तथा नि:शंक याने परमात्मा ने कहे हुए किंतु मात्र आगम शास्त्रों से हि ग्राह्य, अतींद्रिय, एवं अत्यंत सूक्ष्म पदार्थों में “यह ऐसा है कि- अन्य प्रकार से है" इत्यादि स्वरूपवाली शंका जिस साधु को नहि है, वह निःशंक... __ अर्थात् “राग एवं द्वेष को जीतनेवाले सर्वज्ञ तीर्थंकर परमात्मा ने धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं पुद्गल-परमाणु आदि जो कुछ भी कहा है वह तथ्य अर्थात् सत्य हि है" ऐसे स्वरूपवाली दृढ-श्रद्धा (पदार्थ के स्वरूप की सूक्ष्म समझ न हो तो भी) करें... किंतु विचिकित्सा याने संदेह अथवा निंदा (अवर्णवाद) न करें... .