________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-5-5 - 2 (174) 439 I * सूत्र // 2 // // 174 // 1-5-5-2 वितिगिच्छ-समावण्णेणं अप्पाणेणं नो लहइ समाहि, सिया वेगे अणुगच्छंति, असिता वेगे अणुगच्छंति, अणुगच्छमाणेहिं अणणुगच्छमाणे कहं न निव्विजे ? // 174 // II संस्कृत-छाया : विचिकित्सा-समापन्नेन आत्मना न लभते समाधिम् / सिता वा एके अनुगच्छन्ति, असिता वा एके अनुगच्छन्ति, अनुगच्छद्भिः अननुगच्छन् कथं न निर्विद्येत ? // 174 // III सूत्रार्थ : सन्देह युक्त आत्मा समाधि को प्राप्त नहीं कर सकता, कोई 2 गृहस्थ आचार्य की आज्ञा का पालन करते हैं, तथा कोई 2 साधु आचार्य की आज्ञानुसार चलते हैं। अर्थात् आचार्य के वचनानुसार चलने से समाधि की प्राप्ति करते हैं। तो फिर जो आचार्य की आज्ञा का पालन नहीं करता वह संशययुक्त आत्मा खेद को प्राप्त क्यों न होगा ? अर्थात अवश्य होगा। IV टीका-अनुवाद : विचिकित्सा याने चित्तविभ्रम... जैसे कि- “यह भी है" ऐसे स्वरूपवाली युक्ति से समुपपन्न याने प्राप्त सूत्र अर्थ में भी मोह के उदय से साधु को मतिविभ्रम होता है... वह इस प्रकार-सिकता याने रेत के कणों के कवल के जैसे स्वाद रहित इतनी बडी तपश्चर्या की सफलता होगी कि नहि ? क्योंकि- कृषि आदि क्रियाओं में सफलता एवं निष्फलता दोनों का दर्शन होता है... यह ऐसी मति दो कारण से होती है... (1) मिथ्यात्व मोह के उदय से... (2) ज्ञेय पदार्थों की गहनता से... जैसे कि- श्रोताओं के लिये सूत्र के अर्थ की प्राप्ति का तीन (3) प्रकार हैं... 1. सुखाधिगम = सुख से जाना जाय... (2) दुरधिगम = दुःख (कष्ट) से जाना जाय... (3) अनधिगम = कष्ट याने श्रम करने पर भी समझ में न आवे... उनमें (1) "सुखाधिगम" इस प्रकार है... जैसे कि- रूप याने वस्तु-पदार्थ के वर्ण (रंग) की जानकारी अच्छी आंखोवाले एवं चित्रकला में निपुण पुरुष को सुख से = आसानी से होती है... (2) “दुरधिगम" आंखे हो किंतु चित्रकला में निपुणता न हो; तब चित्र के स्वरूप का बोध दुर्लभ होता है... तथा (3) “अनधिगम' अंधा मनुष्य चित्रकला को देख