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________________ 4381 -5-5-1(173) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन से ही है। यदि सरोवर समतल भूमि पर नहीं है, तो प्रत्येक प्राणी सुगमता से उसके पानी का लाभ नहीं उठा सकता। तथा जल से रहित सरोवर का कोई मल्य नहीं है। क्योंकि- उससे किसी भी प्राणी को लाभ नहीं पहंचता। तथा सरोवर का उपशान्तरजोमय होना उसकी स्वच्छता का प्रतीक है और स्वच्छ जल प्रत्येक व्यक्ति के लिए लाभप्रद हो सकता है और जलचर जीवों के संरक्षक के रूप में उसकी परोपकारिता परिचित होती है। वह जैसे मत्स्य आदि जीवों को आश्रय देता है, उसी प्रकार सर्प-सिंह आदि हिंसक जन्तुओं की भी प्यास बुझाता है। इस गुण से उसकी समभाव वृत्ति का भी बोध होता है। इन चार बातों से ही जलाशय सरोवर का महत्त्व एवं श्रेष्ठता बताई गई है। आचार्य का जीवन भी सरोवर के समान होता है। उनके जीवन में कहीं भी विषमता परिलक्षित नहीं होती। और वह श्रुतज्ञान के जल से परिपूर्ण रहता है। ज्ञान सम्पन्न होने पर भी उनके जीवन में अभिमान का उदय नहीं होता। उनके कषाय सदा उपशान्त रहते हैं। और वे चतुर्विध संघ में स्थित साधुओं के संरक्षण में सदा तत्पर रहते हैं। वे समभाव से प्रत्येक साधु की उन्नति के लिए प्रयत्न करते हैं। छोटे-बड़े का, विद्वान-मूर्ख का उनके मन में भेद नहीं रहता। सब के साथ समुचित व्यवहार करते हैं। प्रबुद्ध शब्द से सम्यग्दर्शन, प्रज्ञावंत शब्द से सम्यक् ज्ञान और आरम्भ से निवृत्त शब्द से सम्यक् चारित्र का बोध होता है। आचार्य एवं साधु दोनों रत्नत्रय के आराधक हैं। अत: श्रुत सम्पन्न आचार्य एवं साधु को जलाशय के समान श्रेष्ठ बताया गया है। इस तरह श्रुत सम्पन्न आचार्य एवं साधु के आदर्श जीवन का उल्लेख करते हुए सूत्रकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि- तुम स्वयं मध्यस्थ-निष्पक्ष भाव से अनुभव करो देखो ! इस कथन से अन्धश्रद्धा का उच्छेद किया गया है। साधु को अपनी निष्पक्ष बुद्धि से गुणों को समझने का अवसर दिया गया है। इस कथन से स्वतन्त्र चिन्तन को प्रोत्साहन मिलता है। इस तरह साधु को श्रुत सम्पन्न आचार्य के अनुशासन में समाधि मरण की आकांक्षा रखते हुए रत्नत्रय के विकास में संलग्न रहना चाहिए। जीवन में मृत्यु का आना निश्चत है। अतः साधु को मृत्यु से डरना नहीं चाहिए, बल्कि समभाव पूर्वक समाधि मरण की आकांक्षा रखनी चाहिए। क्योंकि- समाधि मरण से साधक अशुभ कर्मों की निर्जरा करता हुआ, एक दिन इसी समाधि मरण से निर्वाण पद को पा लेता है। अतः साधु को समाधि मरण की आकांक्षा रखने का आदेश दिया गया है। श्रुत सम्पन्न आचार्य के अनुशासन में रहकर अपनी साधना को तेजस्वी बनाने वाले शिष्य की कैसी वृत्ति हो, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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