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________________ 4401 -5-5-2(174) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हि नहि शकता है... इन तीनों में अनधिगम तो अवस्तु स्वरूप हि है... तथा सुखाधिगम में कभी भी विचिकित्सा होती हि नहि है... क्योंकि- देश, काल एवं स्वभाव का दूर होना हि विचिकित्सा का विषय है... अतः दुरधिगम ऐसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकायादि में हि विचिकित्सा हो शकती है... अथवा विचिकित्सा याने विद्वानों की जुगुप्सा याने निंदा (अवर्णवाद) तथा विद्वान् याने संसार के स्वभाव को जानकर समस्त संग का त्याग करनेवाले साधुलोग... उन साधुलोगों की निंदा... जैसे कि- यह साधुलोग जल से स्नान नहि करतें, अतः पसीने के जल-बिंदुओं से क्लिन्न याने आई (भीगे) मलवाले होने से दुर्गंध युक्त शरीरवाले हैं- इत्यादि... और ऐसा भी कहते हैं कि- अचित्त जल से स्नान (अंगशुद्धि) करे तो क्या दोष है ?... इत्यादि प्रकार से जुगुप्सा याने निंदा करनेवाले प्राणी चित्तकी स्वस्थता स्वरूप समाधि पा नहि शकतें... अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र स्वरूप समाधि को पा नहि शकतें... अर्थात् विचिकित्सा याने निंदा से कलुषित (मलीन) अंत:करणवाला मनुष्य आचार्य के उपदेश से सम्यक्त्व स्वरूप बोधि को प्राप्त नहि कर शकता... तथा सित याने पुत्र-पत्नी आदि से संबद्ध गृहस्थ भी यदि लघुकर्मवाले हो तब आचार्य के उपदेश से सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं... और असित याने गृहवास का त्याग करनेवाले एवं निंदा नहि करने वाले कितनेक साधुलोग भी आचार्यजी के मार्ग का अनुसरण करतें हैं... यदि कोइक जीव बहुल कर्मी हो, वह भी मोक्षमार्ग में चलनेवाले अनेक गृहस्थ एवं साधुलोगों को देखकर कर्मग्रंथि का भेद-छेद करके सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, यह बात सूत्र के पदों से हि दिखाते हैं... वह इस प्रकार- आचार्य के उपदेश अनुसार सम्यक्त्व के अभिमुख रहा हुआ तथा साधुलोग एवं श्रावक गृहस्थों के साथ निवास करनेवाला एवं उनके द्वारा बार बार प्रेरणा पानेवाला जीव यद्यपि अभी सम्यक्त्व नहि पाया हुआ है तो भी क्या वह मनुष्य निर्वेद याने संसार से छुटनेके भावको नहि पाता ? अर्थात् निर्वेद-भाव अवश्य पाता है... अर्थात् शुभ अनुष्ठान की मिथ्यात्वादि रूप विचिकित्सा याने संशय एवं निंदा आदि का त्याग करके आचार्य से कहे गये सम्यक्त्व को अवश्य पाता है... . अथवा आचार्य के द्वारा कहे गये सम्यक्त्व (मोक्षमार्ग) का अनुसरण करनेवाले साधुलोग के साथ रहनेवाला अज्ञ जीव यदि अज्ञान के कारण से मति की जडता होने पर आचार्यादि के उपदेश को समझ न पाए तो भी क्या वह संसार से निर्वेद नहि पाता ? अर्थात् निर्वेद पाता हि है... तथा वह साधु तपश्चर्या एवं संयमानुष्ठान में उद्वेग न करे... और कभी उद्वेगं हो,
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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