________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका ॐ१-२-0-0卐 देव एवं मनुष्यों की बारह (12) पर्षदा में आचार-पंचाचार का स्वरूप कहा, और अचिंत्य * मेधा-शक्तिवाले बुद्धिशाली गौतमस्वामीजी आदि गणधरों ने सर्व जीवों के उपकार के लिये प्रभुजी से कहे गये प्रवचन-देशना में से आचार संबंधित बातों के संग्रह स्वरूप आचारांग सूत्र बनाया है, जब कि- चतुर्विंशतिस्तव तो आवश्यक सूत्र के अंतर्गत है, और निकट (समीपदूर) के काल में होनेवाले भद्रबाहुस्वामजी ने बनाया है, अतः पूर्वकाल में होनेवाले आचारांग सूत्र की व्याख्या में बाद में होनेवाले चतुर्विंशति-स्तव का अतिदेश (भलामण) करना अयोग्य है... ऐसा यहां कोई मंदमतिवाले शिष्य को प्रश्न हो शकता है, इत्यादि... उत्तर- ना, यहां कोई दोष नहि है, क्योंकि- यह अतिदेश (भलामण) भद्रबाहुस्वामजी ने कही है, और उसका कारण यह है कि- उन्हों ने पहले आवश्यक सूत्र की नियुक्ति बनाइ है, और बादमें आचारांग सूत्र की नियुक्ति बनाइ है... उन्हों ने कहा भी है कि- हमने पहले आवश्यक सूत्र की नियुक्ति रची है, बादमें दशवैकालिक सूत्र की, उत्तराध्ययन सूत्र की एवं आचारांग सूत्र की... इत्यादि नियुक्तियां क्रमशः रची है, अतः यहां कोई दोष नहि है... अब विजयपद के निक्षेप का स्वरूप कहते हैं, उनमें नाम विजय और स्थापना विजय सुगम होने से छोडकर अब द्रव्य विजय कहते हैं... नो आगम से तद्व्यतिरिक्त द्रव्यविजय याने द्रव्य के द्वारा, द्रव्य से और द्रव्य में विजय... जैसे कि- कडवे तीखे एवं कषायले रस से श्लेष्म आदि का नाश होता है, अर्थात् श्लेष्म से विजय पातें है, अथवा राजा और मल्ल आदि प्रतिपक्ष के ऊपर युद्ध में विजय पातें है... . क्षेत्रविजय = छह (6) खंडवाले भरत आदि क्षेत्रों की व्याख्या जहां (जिस क्षेत्र में) कही जाय, वह... क्षेत्र... क्षेत्रविजय... कालविजय याने काल के द्वारा विजय... जैसे किभरत चक्रवर्ती ने साठ (60) हजार वर्षों में भरत क्षेत्र को जीता, यहां काल की प्रधानता है... अथवा सेवा के कार्य में इस सेवक ने एक महिना जिता याने एक महिना सेवा की... अथवा जिस काल में विजय की व्याख्या की जाय वह काल... काल विजय... भाव-विजय याने औदयिक आदि भाव का औपशमिक आदि भाव से विजय... वह भाव-विजय... इस प्रकार लोक एवं विजय का स्वरूप विस्तार से कहकर अब यहां उनमें से कौन सा निक्षेप उपयोगी है वह कहते हैं... यहां भव-लोक कहने से भावलोक हि समझीयेगा... तथा छंदभंग के भय से भाव का ह्रस्व भव शब्द का ग्रहण कीया है... और कहा भी है कि- भावनिक्षेप में कषायलोक के विजय का अधिकार है... अर्थात् औदयिक भाव स्वरूप कषाय लोक का औपशमिक आदि भावलोक से विजय हि यहां प्रस्तुत है... यहां यह सारांश है कि- यहां पूर्व में कहे गये आठ प्रकार के लोक एवं छह प्रकार के विजय में से भावलोक