________________ 6 1 - 2 -0-05 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नि. 166 लोक पद के आठ निक्षेप होते हैं, और विजय पद के छह (6) निक्षेप होते हैं... और यहां भाव निक्षेप लोक में कषायलोक का विजय करें... यह मुख्य अधिकार है... __ लोक याने धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय युक्त और सभी द्रव्यों का आधार ऐसा वैशाखस्थानस्थ कटि प्रवेश पे रखे हुए हाथवाले पुरुष के आकारवाला आकाश खंड (14 राजलोक) स्वरूप लोक, अथवा धर्म अधर्म आकाश, जीव एवं पुद्गलास्तिकाय स्वरूप पंचास्तिकाय स्वरूप लोक है... इस लोक के आठ निक्षेप होते हैं... 1. नाम, 2. स्थापना, 3. द्रव्य, 4. क्षेत्र, 5. काल, 6. भव, 7. भाव, 8. पर्यव... तथा विजय याने अभिभव, पराभव, पराजय... यह सभी विजय पद के पर्यायवाचक पद हैं... विजय पद के छह (6) निक्षेप होते हैं..... अब आठ प्रकार के लोक के निक्षेप में से यहां भावलोक का अधिकार है... और वह भावलोक के औदयिक आदि छह (6) प्रकार हैं, उनमें भी यहां औदयिक-कषाय भावलोक का अधिकार है... क्योंकि- संसार का मूल कारण कषाय हि है... प्रश्न- यदि ऐसा है तो आप क्या कहना चाहते हैं ? . उत्तर- यहां औदयिक भाव स्वरूप कषाय लोक पर विजय प्राप्त करें... यह मुख्य बात है... प्रस्तुत लोक पद के आठ निक्षेप पहले हि कह चूके हैं, अब विजय पद के (6) छह निक्षेप कहतें हैं... . नि. 167 लोक का स्वरूप यहां कह चुकें है अब विजय के निक्षेप कहते हैं... नाम - स्थापना - द्रव्य - क्षेत्र-काल और भाव विजय यह विजय के छह (6) निक्षेप होते हैं... उनमें भवलोक और भाव-विजय का यहां अधिकार है क्योंकि- यहां आठ प्रकार के कर्मो से जीव संसार में घुमता है... चतुर्विंशति स्तव (लोगस्स० सूत्र) में लोक का स्वरूप विस्तार से कहा गया है... प्रश्न- चतुर्विंशति स्तवमें लोक की व्याख्या कही है, तो यहां प्रश्न होता है कि- ऐसा क्यों ? वहां क्यों कही ? और यहां क्यों नहि कहतें ? क्योंकि- इस विश्व में अपूर्वकरण (आठवा) गुणस्थानक आदि क्रम से क्षपकश्रेणी में चढकर शुक्ल ध्यान स्वरूप अग्नि से घातिकर्म स्वरूप इंधन का विनाश हो जाने से प्रगट हुए निरावरण (केवलज्ञान) ज्ञानवाले तथा तीर्थंकर नामकर्म के विपाकोदय से प्रगट हुए चौतीस (34) अतिशयवाले श्री वर्धमान स्वामीजी ने हेय एवं उपादेय का स्वरूप प्रगट करने के लिये